Vishnu Sahasranama Stotra

श्रेणी:Vishnu Stotra
उपश्रेणी:Shri Vishnu Stotram | Powerful Daily Prayer for Protection and Prosperity
Vishnu Sahasranama Stotra
Vishnu Sahasranama Stotra Icon

Introduction

  • This stotra is a beautiful compilation of 1000 names of Lord Vishnu.
  • It is described in the Vishnu Purana and is considered highly sacred.
  • Each name reflects a unique quality or aspect of Lord Vishnu.
  • Chanting it brings devotion, peace, prosperity, and removal of obstacles.
  • Regular recitation is a powerful means to attain liberation and divine grace.



श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् 

 मंगलाचरण:


श्रीपरमात्मने नमः ।

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥
Om
Shree Paramātmane Namah।
Nārāyaṇam namaskṛitya naraṁ chaiva narottamam।
Devīṁ Sarasvatīṁ Vyāsaṁ tato jayamudīrayet॥

 परमात्मा नारायण, उत्तम नर (नर और नारायण), देवी सरस्वती और व्यासजी को नमस्कार करके, विजय की कामना करनी चाहिए।

शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥ १॥
Shuklāmbaradharaṁ Viṣṇuṁ śaśivarṇaṁ chaturbhujam।
Prasannavadanam dhyāyet sarvavighnopashāntaye॥1॥

 श्वेत वस्त्र धारण किए, चंद्रमा के समान वर्ण वाले, चार भुजाओं वाले और प्रसन्नमुख विष्णु का ध्यान करना चाहिए, जिससे समस्त विघ्न शांत हो जाएं।

यस्य द्विरदवक्त्राद्याः पारिषद्याः परः शतम्।
विघ्नं निघ्नन्ति सततं विष्वक्सेनं तमाश्रये ॥ २॥
Yasya dviradavaktrādyāḥ pāriṣadyāḥ paraḥ śatam।
Vighnaṁ nighnanti satataṁ viśvaksenaṁ tamāśraye॥2॥

 जिनके गण—मुख्यतः गजानन (गणेश) और अन्य सेवकगण—सदैव विघ्नों का नाश करते हैं, ऐसे विश्वक्सेन भगवान विष्णु का मैं आश्रय लेता हूँ।

व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम्।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ॥ ३॥
Vyāsaṁ Vasiṣṭha-naptāraṁ Śakteḥ pautram akalmaṣam।
Parāśarātmajaṁ vande Śukatātaṁ taponidhim॥3॥


जो वसिष्ठ के पौत्र, शक्ति के पुत्र, पापरहित, पराशर के पुत्र, शुकदेव के पिता और तप के निधि हैं, ऐसे व्यासजी को मैं वंदन करता हूँ।

व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ॥ ४॥
Vyāsāya Viṣṇurūpāya Vyāsarūpāya Viṣṇave।
Namo vai brahmanidhaye Vāsiṣṭhāya namo namaḥ॥4॥


जो विष्णु के रूप में व्यास और व्यास के रूप में विष्णु हैं, उन ब्रह्म के भंडार, वसिष्ठ कुलोत्पन्न को बारंबार नमस्कार है।

अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने।
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥ ५॥
Avikārāya śuddhāya nityāya paramātmane।
Sadaikarūparūpāya Viṣṇave sarvajiṣṇave॥5॥


जो अविकारी, शुद्ध, नित्य, परमात्मा, एकरस रूपधारी और सब पर विजय प्राप्त करनेवाले हैं, उन विष्णु को प्रणाम।

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ६॥
Yasya smaraṇamātreṇa janmasaṁsārabandhanāt।
Vimuchyate namas tasmai Viṣṇave prabhaviṣṇave॥6॥

 जिनका केवल स्मरण मात्र से जन्म-मृत्यु रूपी संसार बंधन से मुक्त हो जाता है, ऐसे प्रभु विष्णु को नमस्कार है।


श्रीवैशम्पायन उवाच

श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः।
युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥ ७॥
Śrī Vaiśaṁpāyana uvācha —
Śrutvā dharmānaśeṣeṇa pāvanāni cha sarvaśaḥ।
Yudhiṣṭhiraḥ Śāntanavaṁ punarevābhyabhāṣata॥7॥

 वैशम्पायन जी बोले — जब युधिष्ठिर ने भीष्मपितामह से समस्त पावन धर्मों को पूरी तरह सुन लिया, तब उन्होंने फिर पूछा।

युधिष्ठिर उवाच

किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम्।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥ ८॥
Yudhiṣṭhira uvācha —
Kim ekaṁ daivataṁ loke kiṁ vāpyekaṁ parāyaṇam।
Stuvantaḥ kaṁ kamarchantaḥ prāpnuyur mānavāḥ śubham॥8॥

 युधिष्ठिर बोले — हे पितामह! इस लोक में एकमात्र दैवत कौन है? एकमात्र परायण कौन है? मनुष्य किसका स्तवन करें, किसकी पूजा करें जिससे उन्हें कल्याण प्राप्त हो?

को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥ ९॥
Ko dharmaḥ sarvadharmāṇāṁ bhavataḥ paramo mataḥ।
Kiṁ japan muchyate jantur janmasaṁsārabandhanāt॥9॥

 आपकी दृष्टि में समस्त धर्मों में कौन-सा धर्म श्रेष्ठ है? कौन-सा जप करने से जीव जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है?


भीष्म उवाच

जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन् नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥ १०॥

Bhīṣma uvācha —
Jagatprabhuṁ Devadevam anantaṁ Puruṣottamam।
Stuvan nāmasahasreṇa Puruṣaḥ satatotthitaḥ॥10॥

 भीष्म बोले — जो पुरुष निरंतर जाग्रत होकर, जगत के प्रभु, देवों के देव, अनंत और पुरुषोत्तम विष्णु का सहस्र नामों से स्तवन करता है, वह श्रेष्ठ मार्ग पर चलता है।

तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम्।
ध्यायन् स्तुवन् नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥ ११॥
Tameva chārcayannityaṁ bhaktyā Puruṣam avyayam।
Dhyāyan stuvan namasyaṁś cha yajamānas tameva cha॥11॥

 जो मनुष्य नित्य उस अविनाशी पुरुष की भक्ति, ध्यान, स्तुति और नमस्कार द्वारा उपासना करता है, वही सच्चा यजमान (उपासक) है।

अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम्।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥ १२॥
Anādinidhanaṁ Viṣṇuṁ sarvaloka-maheśvaram।
Lokādhyakṣaṁ stuvannityaṁ sarvaduḥkhātigo bhavet॥12॥


जो विष्णु न आदि हैं, न अंत — वे सर्वलोकों के ईश्वर हैं। उनका नित्य स्तवन करने से मनुष्य समस्त दुःखों से पार हो जाता है।

ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम्।
लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ॥ १३॥
Brahmaṇyaṁ sarvadharmajñaṁ lokānāṁ kīrtivardhanam।
Lokanāthaṁ mahadbhūtaṁ sarvabhūtabhavodbhavam॥13॥

 जो ब्रह्मवेत्ता, समस्त धर्मों को जाननेवाले, लोकों की कीर्ति को बढ़ानेवाले, सबके स्वामी और समस्त प्राणियों के कारणस्वरूप हैं — उनका ही स्तवन करना चाहिए।

एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः।
यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥ १४॥
Eṣa me sarvadharmāṇāṁ dharmo’dhikatamo mataḥ।
Yadbhaktyā Puṇḍarīkākṣaṁ stavair archen naraḥ sadā॥14॥


मेरे मत में यह धर्म समस्त धर्मों से श्रेष्ठ है — कि मनुष्य भक्ति से कमल-नेत्र भगवान विष्णु का स्तुति-पूजन करता रहे।

परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः।
परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ॥ १५॥
Paramaṁ yo mahat-tejaḥ paramaṁ yo mahat-tapaḥ।
Paramaṁ yo mahat-brahma paramaṁ yaḥ parāyaṇam॥15॥

 जो परम तेजस्वी हैं, परम तपस्वी हैं, परम ब्रह्म हैं और परम परायण हैं — वे ही एकमात्र लक्ष्य हैं।

पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम्।
दैवतं दैवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता॥ १६॥
Pavitranāṁ pavitraṁ yo maṅgalānāṁ cha maṅgalam।
Daivataṁ daivatānāṁ cha bhūtānāṁ yo’vyayaḥ pitā॥16॥


जो पवित्रों में सबसे पवित्र है, मंगलकारी चीजों में सर्वश्रेष्ठ मंगल है, देवों के भी देवता है और समस्त प्राणियों के अविनाशी पिता हैं — वे भगवान विष्णु ही हैं।

यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये॥ १७॥
Yataḥ sarvāṇi bhūtāni bhavantyādi-yugāgame।
Yasmiṁś cha pralayaṁ yānti punareva yuga-kṣaye॥17॥

 जिससे सभी प्राणी आदिकाल (सृष्टि के प्रारंभ) में उत्पन्न होते हैं और युग के अंत में जिसमें पुनः लीन हो जाते हैं — वही भगवान विष्णु हैं।

तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते।
विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम्॥ १८॥
Tasya lokapradhānasya jagannāthasya bhūpate।
Viṣṇor nāmasahasraṁ me śṛṇu pāpa-bhayāpaham॥18॥


हे राजन्! उस समस्त लोकों के स्वामी, जगन्नाथ श्रीविष्णु के हजार नामों को सुनो, जो पाप और भय को दूर करने वाले हैं।

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः।
ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये॥ १९॥

Yāni nāmāni gauṇāni vikhyātāni mahātmanaḥ।
Ṛṣibhiḥ parigītāni tāni vakṣyāmi bhūtaye॥19॥

 जो महात्मा विष्णु के प्रसिद्ध गौण (विशेष गुण-सूचक) नाम हैं, जिन्हें ऋषियों ने गाया है, उन नामों को मैं कल्याण के लिए कहता हूँ।

ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः।
छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भगवान् देवकीसुतः॥ २०॥
Ṛṣir nāmnāṁ sahasrasya Vedavyāso mahāmuniḥ।
Chando’nuṣṭup tathā devo Bhagavān Devakīsutaḥ॥20॥


इस विष्णु सहस्रनाम का ऋषि महान् मुनि वेदव्यास हैं, इसका छंद अनुष्टुप है और इसका देवता (जिसकी स्तुति हो रही है) भगवान देवकीनन्दन श्रीकृष्ण हैं।

अमृतांशूद्भवो बीजं शक्तिर्देवकीनन्दनः।
त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियोज्यते॥ २१॥
Amṛtāṁśudbhavo bījaṁ śaktiḥ Devakīnandanaḥ।
Trisāmā hṛdayaṁ tasya śāntyarthe viniyojyate॥21॥

 इस स्तोत्र का बीज मंत्र 'अमृतांशु से उत्पन्न' (चंद्रमा से उत्पन्न) है, शक्ति 'देवकीनन्दन' श्रीकृष्ण हैं और 'त्रिसामा' (तीनों वेदों द्वारा गाया गया) इसका हृदय है — यह सब शांति की प्राप्ति के लिए नियोजित है।

विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम्।
अनेकरूपदैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमम्॥ २२॥
Viṣṇuṁ jiṣṇuṁ mahāviṣṇuṁ prabhaviṣṇuṁ maheśvaram।
Anekārūpa daityāntaṁ namāmi Puruṣottamam॥22॥


जो विष्णु हैं, विजयी हैं, महान विष्णु हैं, प्रभावशाली हैं, परम ईश्वर हैं; जो अनेक रूप धारण कर राक्षसों का अंत करते हैं — ऐसे पुरुषोत्तम को मैं नमस्कार करता हूँ।


पूर्वन्यासः (Purvanyasah)

ॐ अस्य श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रमहामन्त्रस्य ।
श्रीवेदव्यासो भगवान् ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः ।
श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम् ।
देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः ।
उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः ।
शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम् ।
शार्ङ्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम् ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति नेत्रम् ।
त्रिसामा सामगः सामेति कवचम् ।
आनन्दं परब्रह्मेति योनिः ।
ऋतुः सुदर्शनः काल इति दिग्बन्धः ।
श्रीविश्वरूप इति ध्यानम् ।
श्रीमहाविष्णुप्रीत्यर्थे सहस्रनामस्तोत्रपाठे विनियोगः ॥

Om asya Shri-Vishnor-divya-sahasranama-stotra-mahamantrasya।
Shri Vedavyāso Bhagavān ṛṣih।
Anuṣṭup chandaḥ।
Shrī Mahāviṣṇuḥ Paramātmā Shrīmannārāyaṇo devatā।
Amṛtāṁśu-udbhavo Bhānur-iti bījam।
Devakīnandanaḥ sraṣṭeti śaktiḥ।
Udbhavaḥ kṣobhaṇo deva iti paramo mantraḥ।
Śaṅkhabhṛn-Nandakī-Chakrī-iti kīlakam।
Śārṅgadhanvā Gadādhara ityastram।
Rathāṅgapāṇir-akṣobhya iti netram।
Trisāmā sāmagaḥ sāmeti kavacham।
Ānandaṁ Parabrahmeti yoniḥ।
ṛtuḥ Sudarśanaḥ Kāla iti digbandhaḥ।
Śrī Viśvarūpa iti dhyānam।
Śrī Mahāviṣṇu-prītyarthe sahasranāma-stotrapāṭhe viniyogaḥ॥

यह श्रीविष्णु के दिव्य सहस्रनाम स्तोत्र महामंत्र का विनियोग है। इसके ऋषि भगवान वेदव्यास हैं, छन्द अनुष्टुप है, देवता श्रीमहाविष्णु हैं, बीज मंत्र "अमृतांशु (चंद्रमा) से उत्पन्न भानु (सूर्य)" है, शक्ति "देवकीनंदन सृष्टिकर्ता" है। परम मंत्र "उद्भव, क्षोभण, देव", कीलक "शंख, नंदकी तलवार, चक्र", अस्त्र "शार्ङ्ग धनुष, गदा", नेत्र "रथचक्रधारी, अचल", कवच "त्रिसामा", योनि "आनंदस्वरूप परब्रह्म", और दिशाबंध "ऋतु, सुदर्शन, काल" है। ध्यान “श्रीविश्वरूप” और इसका पाठ श्रीमहाविष्णु की प्रसन्नता के लिए किया जाता है।



 ऋष्यादि न्यासः (Rishyadi Nyasaḥ)

ॐ शिरसि वेदव्यासर्षये नमः ।
मुखे अनुष्टुप्छन्दसे नमः ।
हृदि श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः ।
गुह्ये अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजाय नमः ।
पादयोर्देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तये नमः ।
सर्वाङ्गे शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकाय नमः ।
करसम्पूटे मम श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ॥

Om śirasi Vedavyāsa ṛṣaye namaḥ।
Mukhe Anuṣṭup chandase namaḥ।
Hṛdi Shrīkṛṣṇa Paramātma devatāyai namaḥ।
Guhye Amṛtāṁśudbhavo Bhānur-iti bījāya namaḥ।
Pādayor Devakīnandanaḥ sraṣṭeti śaktyai namaḥ।
Sarvāṅge Śaṅkhabhṛn-Nandakī-Chakrī-iti kīlakāya namaḥ।
Karasampuṭe mama Shrīkṛṣṇa-prītyarthe jape viniyogaḥ॥

हिन्दी भावार्थ:

मस्तक पर वेदव्यास ऋषि का, मुख में अनुष्टुप छन्द का, हृदय में श्रीकृष्ण परमात्मा की देवता रूप में, गुप्त भाग में अमृतांशु-भानु बीज का, पैरों में देवकीनंदन शक्ति का, सम्पूर्ण अंगों में शंख, नंदकी, चक्र कीलक का, और हाथ जोड़कर (करसम्पुट) श्रीकृष्ण की प्रसन्नता हेतु जाप का विनियोग किया जाता है।


करन्यासः 

ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति तर्जनीभ्यां नमः ।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति मध्यमाभ्यां नमः ।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इत्यनामिकाभ्यां नमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ॥

Om Viśvaṁ Viṣṇur-vaṣaṭkāra ity-aṅguṣṭhābhyāṁ namaḥ।
Amṛtāṁśudbhavo Bhānur-iti tarjanībhyāṁ namaḥ।
Brahmaṇyo Brahmakṛd Brahmeti madhyamābhyāṁ namaḥ।
Suvarṇabindur-akṣobhya ity-anāmikābhyāṁ namaḥ।
Nimiṣo’nimiṣaḥ Sragvīti kaniṣṭhikābhyāṁ namaḥ।
Rathāṅgapāṇir-akṣobhya iti karatala-karapṛṣṭhābhyāṁ namaḥ॥

हिन्दी भावार्थ:

प्रत्येक अंगुली पर नाम जप करते हुए —
अंगूठों पर "विश्वं विष्णुर्वषट्कार",
तर्जनी पर "अमृतांशुद्भवो भानु",
मध्यमा पर "ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्म",
अनामिका पर "सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य",
कनिष्ठिका पर "निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी",
हथेली और पीठ पर "रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य" — इन मंत्रों से पूजा कर हाथों का पवित्रीकरण होता है।



षडङ्गन्यासः (Shaḍaṅga Nyasaḥ)

ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इति हृदयाय नमः ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति शिरसे स्वाहा ।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति शिखायै वषट् ।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इति कवचाय हुम् ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति नेत्रत्रयाय वौषट् ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इत्यस्त्राय फट् ॥

Om Viśvaṁ Viṣṇur-vaṣaṭkāra iti hṛdayāya namaḥ।
Amṛtāṁśudbhavo Bhānur-iti śirase svāhā।
Brahmaṇyo Brahmakṛd Brahmeti śikhāyai vaṣaṭ।
Suvarṇabindur-akṣobhya iti kavacāya hum।
Nimiṣo’nimiṣaḥ Sragvīti netratrayāya vauṣaṭ।
Rathāṅgapāṇir-akṣobhya ity-astrāya phaṭ॥

हिन्दी भावार्थ:

यह शरीर की छः मुख्य दिशाओं या अंगों को मंत्रों द्वारा सुरक्षित और पवित्र करने की विधि है:
– हृदय के लिए “विश्वं विष्णुः...”
– सिर के लिए “अमृतांशु…”
– चोटी (शिखा) के लिए “ब्रह्मण्यो…”
– कवच के रूप में “सुवर्णबिन्दु…”
– नेत्रत्रय के लिए “निमिषो…”
– अस्त्र के रूप में “रथाङ्गपाणि…”


                                                Sankalp (संकल्प)

        श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे विष्णोर्दिव्यसहस्रनामजपमहं करिष्ये इति सङ्कल्पः ।
  Shri-Krishna-prītyarthe Viṣṇor-divya-sahasranāma-japam  ahaṁ kariṣye iti saṅkalpaḥ।

 भगवान श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए मैं श्रीविष्णु के दिव्य सहस्र नामों का जप करने का संकल्प करता हूँ।

क्षीरोदन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकते मौक्तिकानां
मालाकॢप्तासनस्थः स्फटिकमणिनिभैर्मौक्तिकैर्मण्डिताङ्गः ।
शुभ्रैरभ्रैरदभ्रैरुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूषवर्षैः
आनन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदाशङ्खपाणिर्मुकुन्दः ॥ १॥
Kṣīrodanvat-pradeśe śucimaṇi-vilasat-saikate mauktikānāṁ
Mālā-kṛpta-āsanasthaḥ sphatika-maṇi-nibhaiḥ mauktikaiḥ maṇḍitāṅgaḥ।
Śubhrair-abhrair-adabhrair-upari-viracitair-mukta-pīyūṣa-varṣaiḥ
Ānandī naḥ punīyād arin-alina-gadā-śaṅkha-pāṇir Mukundaḥ॥1॥


समुद्र-मंथन से उत्पन्न क्षीर सागर के निर्मल रत्नों व मोतियों से चमकते तट पर, मोतियों की माला से सुसज्जित आसन पर, स्फटिक जैसे उज्जवल शरीरधारी भगवान मुकुंद विराजमान हैं। उनके ऊपर शुभ्र मेघों से निर्मित अमृत की वर्षा हो रही है। हाथों में कमल, गदा, शंख धारण किए वह आनंदस्वरूप भगवान हमारे पापों का नाश करें।


भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलश्चन्द्रसूर्यौ च नेत्रे
कर्णावाशाः शिरो द्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः ।
अन्तःस्थं यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः
चित्रं रम्यते तं त्रिभुवनवपुषं विष्णुमीशं नमामि ॥ २॥
Bhūḥ pādau yasya nābhir viyad-asura-nilaś-candra-sūryau ca netre
Karṇāvāśāḥ śiro dyauḥ mukham-api dahano yasya vāsteyaṁ abdhiḥ।
Antaḥ-sthaṁ yasya viśvaṁ sura-nara-khaga-gobhogi-gandharva-daityaiḥ
Citraṁ ramyate taṁ tribhuvana-vapuṣaṁ Viṣṇum-īśaṁ namāmi॥2॥

 जिनकी पादभूमि पृथ्वी है, नाभि आकाश, नेत्र चंद्रमा और सूर्य हैं, कान दिशाएं, मस्तक आकाश और मुख अग्नि है — ऐसे भगवान विष्णु के पेट में समुद्र स्थित है। जिनके भीतर यह सम्पूर्ण जगत देव, मनुष्य, पक्षी, पशु, नाग, गंधर्व और राक्षसों के साथ रमण कर रहा है — उस त्रिभुवनमूर्ति विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।

ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ ३॥
Om śāntākāraṁ bhujagaśayanaṁ padmanābhaṁ sureśaṁ
Viśvādhāraṁ gagana-sadṛśaṁ meghavarṇaṁ śubhāṅgam।
Lakṣmīkāntaṁ kamalanayanaṁ yogibhir-dhyānagamyam
Vande Viṣṇuṁ bhava-bhaya-haraṁ sarvalokaika-nātham॥3॥

शांति के स्वरूप, शेषनाग पर शयन करने वाले, कमल-नाभि, देवों के स्वामी, सम्पूर्ण सृष्टि के आधार, आकाश के समान व्यापक, मेघ के रंग वाले, सुंदर अंगों से युक्त, लक्ष्मीपति, कमल जैसे नेत्रों वाले, योगियों द्वारा ध्यान में प्राप्त होने योग्य, संसार-भय का नाश करने वाले और समस्त लोकों के एकमात्र स्वामी श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।


मेघश्यामं पीतकौशेयवासं
श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम् ।
पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं
विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ॥ ४॥
Megha-śyāmaṁ pīta-kauśeya-vāsaṁ
Śrīvatsāṅkaṁ kaustubhodbhāsitāṅgam।
Puṇyopetaṁ puṇḍarīkāyata-akṣaṁ
Viṣṇuṁ vande sarvalokaika-nātham॥4॥
जो मेघ के समान श्यामवर्ण के हैं, पीले रेशमी वस्त्र धारण करते हैं, वक्ष पर श्रीवत्स चिन्ह है और कौस्तुभ मणि से देह आलोकित है। जिनकी आंखें कमल के समान विशाल हैं, जो पुण्य स्वरूप हैं — ऐसे समस्त लोकों के स्वामी श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।



नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते ।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ५॥
Namaḥ samasta-bhūtānām ādibhūtāya bhū-bhṛte।
Anekārūpa-rūpāya Viṣṇave prabhaviṣṇave॥5॥

 सभी जीवों के आदि कारण, पृथ्वी को धारण करने वाले, अनगिनत रूपों में प्रकट होने वाले, प्रभु और प्रभावशाली विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।


सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं
सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।
सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं
नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ॥ ६॥
Saśaṅkha-cakraṁ sakirīṭa-kuṇḍalaṁ
Sapīta-vastraṁ sarasīruhekṣaṇam।
Sahāra-vakṣaḥ-sthala-kaustubha-śriyaṁ
Namāmi Viṣṇuṁ śirasā caturbhujaṁ॥6॥
जो अपने हाथों में शंख और चक्र धारण करते हैं, सिर पर मुकुट और कानों में कुण्डल धारण करते हैं, पीले वस्त्र पहने हैं, कमल जैसे नेत्र हैं, जिनके वक्ष पर लक्ष्मी जी और कौस्तुभ मणि विराजमान है — ऐसे चतुर्भुज भगवान विष्णु को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ।


छायायां पारिजातस्य हेमसिंहासनोपरि
आसीनमम्बुदश्याममायताक्षमलंकृतम् ।
चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कितवक्षसं
रुक्मिणीसत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये ॥ ७॥
Chāyāyāṁ pārijātasya hema-siṁhāsano-pari
Āsīnam-ambuda-śyāmam āyata-akṣam alaṁkṛtam।
Candrānanaṁ caturbāhuṁ śrīvatsāṅkita-vakṣasaṁ
Rukmiṇī-Satyabhāmābhyāṁ sahitaṁ Kṛṣṇam āśraye॥7॥

 जो पारिजात वृक्ष की छाया में स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हैं, जिनका रंग मेघ के समान श्याम है, जिनकी आंखें विशाल हैं और शरीर अलंकरणों से विभूषित है। जिनका मुख चंद्र समान है, चार भुजाएँ हैं, वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है — जो रुक्मिणी और सत्यभामा के साथ हैं — ऐसे भगवान श्रीकृष्ण की मैं शरण लेता हूँ।

ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥
Om viśvaṁ viṣṇur-vaṣaṭ-kāro bhūta-bhavya-bhavat-prabhuḥ।
bhūta-kṛd-bhūta-bhṛd-bhāvo bhūta-ātmā bhūta-bhāvanaḥ॥
ॐ मैं उस विष्णु को प्रणाम करता हूँ जो संपूर्ण जगत के शाश्वत रचयिता, वर्तमान, आणि भविष्य का स्वामी है; जिन्होंने प्राणी बनाए, पालें, और उनका स्वरूप – आत्मा, भाव से ओत-प्रोत – निर्मित किया है।


पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः ।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥

 Pūtātmā paramātmā ca muktānāṁ paramā gatiḥ।
avyayaḥ puruṣaḥ sākṣī kṣetra-jño-‘kṣara eva ca॥

 शुद्ध आत्मा और परम आत्मा, मुक्ति पथ के परमदाता, अचंचल पुरुष (पुरुषोत्तम), साक्षीदृष्टि वाले, क्षेत्र-ज्ञानी और अक्षरब्रह्म — ऐसे विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।


योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥
Yogo yogavidāṁ netā pradhāna-puruṣeśvaraḥ।
nārasiṁh-vapuḥ śrī-mān keśavaḥ puruṣottamaḥ॥
योग की सिद्धि देने वाले योगियों के गुरु, प्रधान पुरुषेश्वर, नर-नरसिंह का रूप धारण करने वाले, श्रीशाली केशव प्रभु, पुरुषोत्तम को मेरा शत्-नमस्कार।


सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।
सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥
Sarvaḥ śarvaḥ śivaḥ sthāṇur bhūtādir nidhi-ravyayaḥ।
sambhavo bhāvano bhartā prabhavaḥ prabhur īśvaraḥ॥

 सर्व का अधिपति, शरण देने वाले, शुभ करने वाले, स्थिर स्तम्भ, भूतों के आदि, अमूल्य निधिका, मृत्युदाता, लोकों के पालक, उत्पत्ति और प्रवाह के कर्ता — प्रभु विष्णु को मेरा प्रणाम।


स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥
Svayambhūḥ śambhu-rādityaḥ puṣkarākṣo mahā-svanaḥ।
anādinidhano dhātā vidhātā dhāturutthamāḥ॥

 स्वयम्भू स्वयं उत्पन्न, शम्भु जैसे सौम्य, आदित्यों के स्रोत, पुष्कर-आंखों वाले, गूंजते महान स्वर वाले, अनादि के सतत खजाना, धराने वाले, विधानों के निर्माता, सर्वश्रेष्ठ कर्ता — विष्णु को नमन।


अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥
Aprameyo hṛṣīkeśaḥ padmanābho ’mara-prabhuḥ।
viśvakarmā manus-tvaṣṭā sthaviṣṭhaḥ sthaviro dhruvaḥ॥

 जिसका मापन ही नहीं, हृषीकेश भगवान, कमल नाभि, अमर पुत्र, विश्व निर्माणकर्ता, मनु वंश के जनक, त्वरितकर्ता (त्वष्टा), प्रतिष्ठित, स्थिर और ध्रुव रूप — ऐसे विष्णु को मेरा अभिनंदन।


अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥
Agrāhyaḥ śāśvataḥ kṛṣṇo lohitākṣaḥ pratar-danaḥ।
prabhūta-trika-kubdhām pavitraṁ maṅgalaṁ param॥

 जो अचूक, शाश्वत, कृष्ण वर्ण, लाल नेत्रों वाले, निर्धात्री – कर्कश की भी पहचान; त्रि-आयामों को नियंत्रित करने वाले, शुद्ध और परम मंगल कर्ता — ऐसे विष्णु का मैं ध्यान करता हूँ।


ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥
Īśānaḥ prāṇadaḥ prāṇo jyeṣṭhaḥ śreṣṭhaḥ prajāpatiḥ।
hiraṇya-garbho bhūgarbho mādhavo madhusūdanaḥ॥
ईश्वर, प्राण देने वाले, जीवन का स्वामी, श्रेष्ठतम्, प्रजापति, हिरन्यगर्भ, भूकुंभज, माधव, मधु-सूदन — इन रूपों वाले विष्णु को मेरा नमन।

 ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ॥
Īśvaro vikramī dhanvī medhāvī vikramaḥ kramaḥ।
anuttamo durādhṛṣaḥ kṛtajñaḥ kṛtirātmavān॥

 ईश्वर, पराक्रमी, धनुर्धारी, मेधावी, अचूक, उच्चतर, जिसने दुष्टों का संहार, कृतज्ञ, कर्म से स्व-समृद्ध — ऐसे भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।


सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥
Sureśaḥ śaraṇaṁ śarma viśvaretāḥ prajābhavaḥ।
ahaḥ saṁvatsaro vyālaḥ pratyayaḥ sarva-darśanaḥ॥
देवन्‍मुकुटधारी, शरण रूप, सुरक्षा प्रदान, सर्वलोक स्वामी, प्रजाओं के जनक, काल (अह: सं). प्रकाशक, नभ रूप, सभी दृष्टियों के दृश्यमान — ऐसे विष्णु को मेरा साष्टांग प्रणाम।

अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः ।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ॥

Ajaḥ sarveśvaraḥ siddhaḥ siddhiḥ sarva-adi-racyutaḥ।
vṛṣākapi-rameyātmā sarva-yoga-viniśrutaḥ॥

 जन्मरहित, सर्वेश्वर, सम्पूर्ण सिद्धियों का स्रोत, शुरुआती से परे, अपरिवर्तनीय, वृषकपि, अद्भुत आत्मा, सभी योगों में निपुण — ऐसे महात्पर विष्णु को मेरा सलाम।

वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्माऽसम्मितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥
Vasur–sumanāḥ satyaḥ samātmā ’sammansmi­taḥ samaḥ।
amoghaḥ puṇḍarīkākṣo vṛṣa-karma vṛṣā-kṛtiḥ॥
वसुधा के समान, सुसंयमी, सच्चा, समानात्मा, अूपजयी, निस्सीम (निष्फल), कमल नेत्रों वाला, वृष (धन देने वाला), वृष-आचरण-वाला — ऐसे विष्णु में मेरा पूर्ण विश्वास।

रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।
अमृतः शाश्वतस्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥
Rudro bahu-śirā babhruḥ viśva-yoniḥ śuci-śravāḥ।
amṛtaḥ śāśvata-sthāṇur varāroho mahātapāḥ॥

 रुद्र, अनेक सिरों वाले, काला वर्ण, विश्व का स्रोत, शुद्ध ध्वनि लिए, अमृत, शाश्वत आधार, वरारोही, महान तपस्वी— ऐसे विष्णु की मैं स्तुति करता हूँ।



सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः ॥
Sarvagaḥ sarva-vid-bhānuḥ viśva-kṣeno janārdanaḥ।
vedo veda-vid-avyaṅgo vedāṅgo vedavit kaviḥ॥
सभी में समाहित, सर्वज्ञ, सूर्य समान तेजस्वी, विष्णुक्षेत्र का स्वामी, जनों के उद्धारकर्ता; वेद, वेद-साक्षी, वेद-अंग, वेदविद्, वेदों के कवि — ऐसे विष्णु को मेरा नमन।


लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥

lokādhyakṣaḥ surādhyakṣo dharmādhyakṣaḥ kṛtākṛtaḥ।
caturātmā catur-vyūhaś-catur-daṁṣṭraś-catur-bhujaḥ॥

 लोकों के अधिपति, सुरों के स्वामी, धर्म के संरक्षक, कृत-अकृत का जानने वाले, चतुर आत्मा, चार रूपों में विभक्त, चार दांत, चार भुजाएँ — ऐसे विष्णु को मेरा प्रणाम।


भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥
Brājiṣṇurbhojanaṁ bhoktā sahiṣṇur jagad-ādijaḥ।
anagho vijayo jetā viśvayonihi punar-vasuḥ॥
जो प्रकाश से उपभोग करता है, भोजन करने वाला, सहिष्णु, जगत् के आदि उत्पत्तिकर्ता, निर्मल, विजयशाली, पराजय करने वाला, सभी प्राणियों का पालनकर्ता — ऐसे विष्णु को मेरा श्रद्धासमन।



उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरूर्जितः ।
अतीन्द्रः सङ्ग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥
Upendro vāmanaḥ prāṁśu-amoghaḥ śucir-ūṛjitaḥ।
atīndraḥ saṅgrahaḥ sargo dhṛtātmā niyamo yamaḥ॥

 उपेन्द्र (चंद्र), वामन रूप, पराक्रमी व संपूर्ण, दूघ-स्वच्छ, उर्जित, इंद्र से परे, संग्रहकर्ता, सृष्टि, धृतात्मा, नियम और यम (नियंत्रक) — ऐसे विष्णु को मेरा नमस्कार।


वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।
अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥
Vedyo vaidyaḥ sadā-yogī vīrahā mādhavo madhuḥ।
atīndriyo mahāmāyo mahotsāho mahābalaḥ॥

 वेदज्ञ, वैद्य, सदैव योगी, दैवीय, प्रेममय माधव, मधु, इंद्र से परे, महान माया, महोत्साही, महाबल — ऐसे विष्णु की मैं वंदना करता हूँ।


महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ॥
mahābuddhir-mahāvīryo mahāśaktiḥ-mahādyutiḥ।
anirdeśya-vapuḥ śrīmān-meyātmā mahā-dṛdhṛk॥

 महाज्ञान, महवीर्य, महाशक्ति, महान प्रकाश, अकल्पनीय स्वरूप, श्रीयुक्त, ईष्यता, स्थिर, ऐसी महाशक्ति वाले विष्णु को मेरा नमन।


महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ॥
maheṣv-āso mahī-bartā śrī-nivāsaḥ satāṁ gatiḥ।
aniruddhaḥ surānando govindo govidāṁ patiḥ॥

 महागौर, धरणी के पालक, श्री का निवास, संतों की मार्गदर्शिका, अनिरुद्ध, सुरों के आनंददाता, गोविंद, गोहितों के स्वामी — ऐसे विष्णु को मना करते हैं।


मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ॥

 marīcir-damano haṁsaḥ-suparṇo bhujag-uttamaḥ।
hiraṇyanābhaḥ sutapāḥ padmanābhaḥ prajāpatiḥ॥

 मरीचि (प्रकाश), दमनहंसी, हंस, सुपर्ण, नागाध्यक्ष, हिरण्यनाभ, तपस्वी, कमलनाभ, प्रजापति — इन रूपों वाले विष्णु को मैं नमन करता हूँ।

 अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ॥

 amṛtyuḥ sarva-dṛk siṁhaḥ sandhātā sandhimān sthiraḥ।
ajo durmarṣaṇaḥ śāstā viśrutātmā surārihā॥

 अमृतदाता, सर्वद्रष्टा, सिंह, संधारक, संधिमय, स्थिर, अजन्मा, दुर्मर्षण, नियामक, प्रख्यात, सुरों का शत्रु — ऐसे विष्णु को मैं नमन करता हूँ।

 गुरु गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ॥

 gurur-gurutamo dhāma satyaḥ satya-parākramaḥ।
nimiṣo’ nimiṣaḥ sra-gvī vācaspatir-udāradhīḥ॥
गुरु, गुरुंज्ञान स्वरूप, शाश्वत धाम, सत्य, सत्य में पराक्रम, मात्राबिना-मात्रा, श्रेष्ठ कंठ, वाचस्पति, उदार बुद्धि — ऐसे विष्णु को मैं आदरपूर्ण तरीके से प्रणाम करता हूँ।

 अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥

 agraṇīr grāmaṇīḥ śrīmān nyāyo netā samīraṇaḥ।
sahasra-mūrdhā viśvātmā sahasrākṣaḥ sahasrapāt॥

 ग्रामों के नेता, श्रीयुक्त, न्यायप्रधान, मार्गदर्शक, वीर — हजारों मस्तक, विश्वात्मा, हजार नेत्र, हजार-वर्षीय — ऐसे विष्णु को मैं श्रद्धा से स्मरता हूँ।

 आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ॥
āvartano nivṛttātmā saṁvṛtaḥ saṁpramardanaḥ।
ahaḥ saṁvartako vahni-ranilo dharaṇīdharaḥ॥

 चक्रवर्ती, आत्मनियंत्रित, विनयान्वित, विनाश के समय अचानक प्रकट होने वाला, काल चक्र, अग्नि-निलो, और धरती को संभाले रखने वाला भगवान विष्णु — इन्हें मेरा नमस्कार।

 सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः ।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ॥
suprasādaḥ prasannātmā viśva-dhṛg-viśva-bhug-vibhuḥ।
satkartā satkṛtaḥ sādhur-jahnur-nārāyaṇaḥ naraḥ॥
जो प्रसन्नचित्त, सर्वलोकों का धारण, लोकभोगकर्ता, भास्कर तुल्य, सदाकर्ता, साधु, जड़त्व से परे, नारायण पुरुष — विष्णु को मेरा प्रणाम।

 असङ्ख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसङ्कल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ॥

 asaṅkhyeyo’aprameyātmā viśiṣṭaḥ śiṣṭa-kṛcchu-citḥ।
siddhārthaḥ siddha-saṅkalpaḥ siddhidaḥ siddhi-sādhanaḥ॥
असंख्य अश्नीता आत्मा, विशिष्ट, सुव्यवस्थित, बुद्धिमान, सिद्ध-कार, सिद्ध सफलता का संकल्प, सिद्धि देनेवाला, साधन सिद्धि का मूल — विष्णु को मेरा नमन।

 वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ॥

 vṛṣāhī vṛṣabho viṣṇur-vṛṣa-parvā vṛṣodaraḥ।
vardhano vardhamānś ca viviktaḥ śrutisāgaraḥ॥

 वृषाहारी, वृषभ (धन), विष्णु, वृषा-ज्वाला, वृष-उदर आदि रूप — समृद्धकर्ता, बढ़ने वाला, पृथक्, शास्त्र-समुद्र — ये सभी रूप विष्णु उन्हीं से हैं; इन्हें मेरा प्रणाम।

 सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।
नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ॥
subhujo durdharo vāgmī mahendro vasudo vasuḥ।
naikarūpo bṛhad-rūpo shipi-viṣṭhaḥ prakāśanaḥ॥

 सुबहुजा, दुर्धर (अपराजेय), वाग्मी, महेंद्र, वासुदेव, धनकारी; अकेला रूप, महाकाय, शिपिविष्ट (शिपिविशेष), प्रकाश विलक्षण — ऐसे विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।

 ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ॥

 ojas-tejo-dyuti-dharaḥ prakāśātmā pratāpanaḥ।
ṛddhaḥ spaṣṭākṣaro mantraścandrāṁśu-bhāskaradyutiḥ॥
जो ओजस्व, तेजस्व, दीपक मन में धारण करते हैं, प्रकाश आत्मा, महान प्रतापी, सम्पन्न, स्पष्टाक्षर (भाषण शक्ति), मन्त्रों व चंद्र-किरणों-सूर्य-किरण समान दीप्तिहीन — ऐसे महाविष्णु को मैं वंदन करता हूँ।

 अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ॥

 Amritāmśūdbhavo Bhānuḥ Śaśa-binduḥ Sureśvaraḥ ।
Auṣadhaṁ Jagataḥ Setuḥ Satyadharma-parākramaḥ ॥

 जो अमृतरूपी चंद्रमा से उत्पन्न हुए हैं, सूर्यस्वरूप हैं, जिनके मस्तक पर चंद्रबिंदी है, जो देवताओं के ईश्वर हैं;
जो समस्त जगत के लिए औषध हैं, जगत को जोड़ने वाले सेतु हैं, और सत्य तथा धर्म के पराक्रमस्वरूप हैं।

 भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ॥
Bhūta-bhavya-bhavannāthaḥ Pavanaḥ Pāvano’nalaḥ ।
Kāmahā Kāmakṛt Kāntaḥ Kāmaḥ Kāmapradaḥ Prabhuḥ ॥

 जो भूत, भविष्य और वर्तमान—तीनों कालों के स्वामी हैं; जो वायु हैं, जो पावन करने वाले हैं और अग्नि हैं;
जो कामनाओं का नाश करने वाले, उन्हें उत्पन्न करने वाले, प्रियतम, स्वयं काम (इच्छा) और इच्छाओं को पूर्ण करने वाले प्रभु हैं।

अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ॥
Amritāmśūdbhavo Bhānuḥ Śaśa-binduḥ Sureśvaraḥ ।
Auṣadhaṁ Jagataḥ Setuḥ Satyadharma-parākramaḥ ॥

 जो चंद्रमा से उत्पन्न हुए हैं, सूर्य हैं, जिनके मस्तक पर चंद्र बिंदी है, जो देवों के स्वामी हैं।
जो संसार के लिए औषधि रूप हैं, संसार को जोड़ने वाले सेतु हैं और सत्य-धर्म में अत्यंत पराक्रमी हैं।

 भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।
कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ॥
Bhūta-bhavya-bhavannāthaḥ Pavanaḥ Pāvano’nalaḥ ।
Kāmahā Kāmakṛt Kāntaḥ Kāmaḥ Kāmapradaḥ Prabhuḥ ॥

 जो भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी हैं; जो वायु, पावन करने वाले और अग्नि हैं।
जो कामनाओं का नाश करते हैं, उत्पत्ति करते हैं, सुंदर हैं, स्वयं काम हैं और इच्छित फल देने वाले प्रभु हैं।

 युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित् ॥
Yugādikṛd Yugāvarto Naikamāyo Mahāśanaḥ ।
Adṛśyo Vyaktarūpaśca Sahasrajid Anantajit ॥

 जो युगों के आरंभकर्ता हैं, युग चक्र को चलाने वाले हैं, जिनकी माया अनेक प्रकार की है।
जो अदृश्य होते हुए भी व्यक्त रूप में प्रकट होते हैं; जो सहस्रों को जीतने वाले और अनंत को भी जीत चुके हैं।

 इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ॥

 Iṣṭo’viśiṣṭaḥ Śiṣṭeṣṭaḥ Śikhaṇḍī Nahuṣo Vṛṣaḥ ।
Krodhahā Krodhakṛt Kartā Viśvabāhur Mahīdharaḥ ॥

 जो सभी के प्रिय हैं, विशेष नहीं फिर भी सबके श्रेष्ठ हैं, सज्जनों द्वारा पूज्य हैं, शिखण्डी धारण करने वाले हैं, नहुष और धर्मरूप वृषभ हैं।
जो क्रोध का नाश करते हैं, कभी क्रोध भी करते हैं, कर्ता हैं, जिनकी भुजाएं सम्पूर्ण विश्व को ढँकती हैं और जो पृथ्वी को धारण करते हैं।

 अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपांनिधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ॥
Acyutaḥ Prathitaḥ Prāṇaḥ Prāṇado Vāsavānujaḥ ।
Apāmnidhir Adhiṣṭhānam Apramattaḥ Pratiṣṭhitaḥ ॥

 जो कभी च्युत नहीं होते (अच्युत), प्रसिद्ध हैं, स्वयं प्राणस्वरूप हैं, प्राणों को देने वाले हैं और इन्द्र के छोटे भाई हैं।
जो जलों के आधार हैं, सम्पूर्ण जगत का अधिष्ठान हैं, जो कभी प्रमाद नहीं करते और स्थिर, अडिग रहते हैं।

 स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ॥

 Skandaḥ Skandadharo Dhuryo Varado Vāyuvāhanaḥ ।
Vāsudevo Bṛhadbhānur Ādidevaḥ Purandaraḥ ॥

 जो कुमार स्कन्द के रूप में हैं, स्कन्द को धारण करने वाले हैं, बोझ उठाने में समर्थ हैं, वर देने वाले हैं और वायु के वाहन हैं।
जो वासुदेव हैं, अत्यंत तेजस्वी हैं, आदि देव हैं और स्वर्ग के शत्रुओं का नाश करने वाले इन्द्र हैं।

 अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥

araḥ ।
Anukūlaḥ Śatāvartaḥ Padmī Padmanibh
Aśokaḥ Tāraṇaḥ Tāraḥ Śūraḥ Śauriḥ Janeśvekṣaṇaḥ ॥


जो शोकरहित हैं, भवसागर से पार कराने वाले हैं, रक्षक हैं, शूरवीर हैं, शूर वंश में उत्पन्न हैं और प्रजा के ईश्वर हैं।
जो सदा अनुकूल रहते हैं, सैकड़ों रूपों में चक्रवर्ती हैं, कमलधारी हैं और कमल जैसे नेत्रों वाले हैं।

 पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् ।
महर्द्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ॥
Padmanābho’ravindākṣaḥ Padmagarbhaḥ Śarīrabhṛt ।
Mahārddhir Ṛddho Vṛddhātmā Mahākṣo Garuḍadhvajaḥ ॥

 जिनकी नाभि में कमल है (ब्रह्मा उत्पन्न हुए), जिनकी आंखें कमल जैसी हैं, जो कमल में जन्मे ब्रह्मा के गर्भस्थ कारण हैं और शरीर को धारण करते हैं।
जो महान ऐश्वर्य से युक्त हैं, पूर्णतः सम्पन्न हैं, वृद्ध आत्मा (अनादि) हैं, विशाल नेत्रों वाले हैं और जिनका ध्वज गरुड़ है।


अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः ॥
Atulaḥ Śarabho Bhīmaḥ Samayajño Havirhariḥ ।
Sarvalakṣaṇa-lakṣaṇyo Lakṣmīvān Samitiñjayaḥ ॥
जो अतुलनीय हैं, शरभ रूपधारी हैं, अत्यंत भयानक हैं, समय के ज्ञाता हैं, यज्ञ में आहुति स्वरूप को ग्रहण करने वाले हैं।
जो सभी शुभ लक्षणों से युक्त हैं, लक्ष्मी के स्वामी हैं और युद्धों में विजय प्राप्त करते हैं।

 विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥
Vikṣaro Rohito Mārgo Hetur Dāmodaraḥ Sahaḥ ।
Mahīdharo Mahābhāgo Vegavān Amitāśanaḥ ॥

 जो परिवर्तन रहित हैं, रोहित मछली के रूप में अवतरित हुए हैं, मोक्ष का मार्ग हैं, जगत के हेतु हैं, कमर में दाम (रस्सी) धारण करने वाले हैं।
जो पृथ्वी को धारण करने वाले हैं, महान सौभाग्यशाली हैं, अत्यंत तीव्र गति वाले हैं और जिनका भक्षण असीम है।

 उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥
Udbhavaḥ Kṣobhano Devaḥ Śrīgarbhaḥ Parameśvaraḥ ।
Karaṇaṁ Kāraṇaṁ Kartā Vikartā Gahano Guhaḥ ॥

 जो सृष्टि के जन्मदाता हैं, संसार को हिलाने वाले हैं, देवता हैं, लक्ष्मी के गर्भस्थ रूप हैं, परमेश्वर हैं।
जो सृष्टि के कारण और साधन दोनों हैं, कर्ता और विकर्ता हैं, गहन (दुर्गम) हैं और गुह्य (गोपनीय) हैं।

 व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।
परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ॥
Vyavasāyo Vyavasthānaḥ Saṁsthānaḥ Sthānado Dhruvaḥ ।
Pararddhiḥ Paramaspaṣṭas Tuṣṭaḥ Puṣṭaḥ Śubhekṣaṇaḥ ॥

 जो स्थिर संकल्प वाले हैं, विश्व की व्यवस्था करने वाले हैं, जो जगत के आधार हैं, सबको स्थान देने वाले हैं और स्वयं अचल हैं।
जो परम ऐश्वर्य के स्वामी हैं, अत्यंत स्पष्ट रूप में जानने योग्य हैं, संतुष्ट और पुष्ट हैं तथा जिनकी दृष्टि शुभ है।

 रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥
Rāmo Virāmo Virajo Mārgo Neyo Nayo’nayaḥ ।
Vīraḥ Śaktimatāṁ Śreṣṭho Dharmo Dharmaviduttamaḥ ॥

 जो राम हैं, परम विश्रांति हैं, रजोगुण से रहित हैं, मोक्षमार्ग हैं, जिन्हें प्राप्त किया जा सकता है और नीति-अनीति के ज्ञाता हैं।
जो महान वीर हैं, शक्तिशाली जनों में श्रेष्ठ हैं, धर्मस्वरूप हैं और धर्म को जानने वालों में सर्वोत्तम हैं।

 वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥
Vaikuṇṭhaḥ Puruṣaḥ Prāṇaḥ Prāṇadaḥ Praṇavaḥ Pṛthuḥ ।
Hiraṇyagarbhaḥ Śatrughno Vyāpto Vāyur Adhokṣajaḥ ॥

 जो वैकुण्ठ हैं, पुरुष (परमात्मा) हैं, प्राण हैं, प्राणदाता हैं, ओंकार हैं और पृथु राजा हैं।
जो हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा के कारण) हैं, शत्रुओं का विनाश करते हैं, सबमें व्याप्त हैं, वायु के समान सूक्ष्म हैं और इंद्रियातीत हैं।

 ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥
Ṛtuḥ Sudarśanaḥ Kālaḥ Parameṣṭhī Parigrahaḥ ।
Ugraḥ Saṁvatsaro Dakṣo Viśrāmo Viśvadakṣiṇaḥ ॥

 जो ऋतुओं के कारण हैं, सुदर्शन चक्रधारी हैं, समयस्वरूप हैं, ब्रह्मा के स्थान में स्थित परमात्मा हैं, सबको ग्रहण करने वाले हैं।
जो उग्र (प्रचंड) हैं, संवत्सर हैं, दक्ष हैं, विश्राम देने वाले हैं और समस्त विश्व को दक्षिणा स्वरूप प्रदान करते हैं।

 विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥

 Vistāraḥ Sthāvarasthāṇuḥ Pramāṇaṁ Bījam Avyayam ।
Artho’nartho Mahākośo Mahābhogo Mahādhanaḥ ॥

\ जो समस्त सृष्टि के विस्तार स्वरूप हैं, जड़ और चेतन दोनों में स्थित हैं, प्रमाण हैं, अविनाशी बीज हैं।
जो अर्थ और अनर्थ के ज्ञाता हैं, महान कोश (संपत्ति) हैं, महान भोग हैं और महान धन हैं।

 अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः ।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ॥
Anirviṇṇaḥ Sthaviṣṭho’bhūr Dharmayūpo Mahāmakhaḥ ।
Nakṣatranemir Nakṣatrī Kṣamaḥ Kṣāmaḥ Samīhanaḥ ॥

 जो कभी क्लांत नहीं होते, स्थूल हैं, धरती के रूप में हैं, धर्मरूपी यूप हैं और महान यज्ञस्वरूप हैं।
जो नक्षत्रों के नियंता हैं, स्वयं नक्षत्रस्वरूप हैं, क्षमाशील हैं, क्षीण वासनाओं वाले हैं और सदा प्रयत्नशील हैं।

 यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥
Yajña Ijyo Mahejyaś Ca Kratuḥ Satraṁ Satāṁ Gatiḥ ।
Sarvadarśī Vimuktātmā Sarvajño Jñānam Uttamam ॥

 जो यज्ञस्वरूप हैं, पूजनीय हैं, महान यज्ञ के पात्र हैं, क्रतु और सत्रस्वरूप हैं, सत्पुरुषों की गति हैं।
जो सब कुछ देखने वाले हैं, मुक्त आत्मा हैं, सर्वज्ञ हैं और सर्वोत्तम ज्ञानस्वरूप हैं।

 सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत् ।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥
Suvrataḥ Sumukhaḥ Sūkṣmaḥ Sughoṣaḥ Sukhadaḥ Suhṛt ।
Manoharo Jitakrodho Vīrabāhur Vidāraṇaḥ ॥


जो उत्तम व्रतधारी हैं, सुंदर मुख वाले हैं, सूक्ष्म स्वरूप हैं, मधुर घोष करने वाले हैं, सुखदाता हैं और सच्चे मित्र हैं।
जो मन को हरने वाले हैं, क्रोध को जीत चुके हैं, वीर भुजाओं वाले हैं और शत्रुओं को विदीर्ण करने वाले हैं।

 स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥

 Svāpanaḥ Svavaśo Vyāpī Naikātmā Naikakarmakṛt ।
Vatsaro Vatsalo Vatsī Ratnagarbho Dhaneśvaraḥ ॥

 जो निद्रारूप हैं, स्वयं पर नियंत्रण रखते हैं, सर्वव्यापी हैं, अनेक रूपों में स्थित हैं, अनेक कर्म करने वाले हैं।
जो कालरूप वत्सर हैं, संतानों से प्रेम करने वाले वत्सल हैं, संतानस्वरूप हैं, रत्नों से भरे हुए हैं और धन के स्वामी हैं।


 धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् ।
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ॥
Dharmagub Dharmakṛd Dharmī Sadasat Kṣaram Akṣaram ।
Avijñātā Sahasrāṁśur Vidhātā Kṛtalakṣaṇaḥ ॥

 जो धर्म के रक्षक हैं, धर्म का निर्माण करने वाले हैं, स्वयं धर्मस्वरूप हैं, सत और असत् (साकार–निराकार) दोनों स्वरूपों में स्थित हैं।
जो नाशवान और अविनाशी हैं, अविज्ञेय हैं, सहस्र किरणों वाले (सूर्य स्वरूप), सृष्टि के विधाता और सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त हैं।

 गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥
Gabhastinemiḥ Sattvasthaḥ Siṁho Bhūta-maheśvaraḥ ।
Ādidevo Mahādevo Deveśo Devabhṛd-guruḥ ॥

 जो सूर्य मण्डल में स्थित हैं, सत्त्वगुण में स्थित हैं, सिंह स्वरूप हैं, समस्त भूतों के महेश्वर हैं।
जो आदिदेव हैं, महादेव हैं, देवताओं के स्वामी हैं और देवताओं के गुरु (बृहस्पति) हैं।

 उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥
Uttaro Gopatir Goptā Jñāna-gamyaḥ Purātanaḥ ।
Śarīrabhūtabhṛd-bhoktā Kapīndro Bhūridakṣiṇaḥ ॥

 जो सर्वोपरि हैं, गौपालक हैं, रक्षक हैं, केवल ज्ञान से प्राप्त किए जा सकते हैं और अति प्राचीन हैं।
जो समस्त शरीरधारी प्राणियों का भरण-पोषण करते हैं, वानरों के स्वामी हैं (राम रूप में), और उदार दक्षिणा देने वाले हैं।

 सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसन्धो दाशार्हः सात्वतां पतिः ॥
Somapo’mṛtapaḥ Somaḥ Purujit Puruṣottamaḥ ।
Vinayo Jayaḥ Satyasandho Dāśārhaḥ Sātvatāṁ Patiḥ ॥
जो सोमरस पीने वाले हैं, अमृतपान करने वाले हैं, स्वयं सोमस्वरूप हैं, बहुतों पर विजय प्राप्त करने वाले हैं, पुरुषोत्तम हैं।
जो विनयी हैं, जयस्वरूप हैं, सत्यप्रतिज्ञ हैं, यदुवंशीय हैं और सात्वतों के अधिपति हैं।

 जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः ॥
Jīvo Vinayitā Sākṣī Mukundo’mitavikramaḥ ।
Ambhonidhir Anantātmā Mahodadhiśayo’ntakaḥ ॥
जो समस्त प्राणियों के भीतर स्थित जीवस्वरूप हैं, नम्रता सिखाने वाले हैं, साक्षी हैं, मोक्षदाता मुकुंद हैं और जिनकी शक्ति अपरिमित है।
जो समुद्रस्वरूप हैं, अनंत आत्मा हैं, समुद्र में शेषनाग पर शयन करते हैं और मृत्यु के दाता हैं।

 अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥
Ajo Mahārhaḥ Svābhāvyo Jitāmitraḥ Pramodanaḥ ।
Ānando Nandano Nandaḥ Satyadharmā Trivikramaḥ ॥
जो अजन्मा हैं, परम पूज्य हैं, स्वभावतः दिव्य हैं, शत्रुओं को जीतने वाले हैं और प्रमोद देने वाले हैं।
जो आनन्दस्वरूप हैं, आनंद पुत्र हैं, नन्द हैं (गोप), सत्य धर्म के पालनकर्ता हैं और त्रिविक्रम रूप में तीनों लोकों को नापने वाले हैं।

 महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाश‍ृङ्गः कृतान्तकृत् ॥
Maharṣiḥ Kapilācāryaḥ Kṛtajño Medinīpatiḥ ।
Tripadas Tridaśādhyakṣo Mahāśṛṅgaḥ Kṛtāntakṛt ॥

 जो महान ऋषि हैं, कपिल मुनि रूप में अवतरित हुए हैं, कृतज्ञ हैं और पृथ्वी के स्वामी हैं।
जो तीन पगों से त्रैलोक्य को नापने वाले हैं, देवताओं के अध्यक्ष हैं, महान सींगधारी (वराह रूप में) हैं और मृत्यु को भी समाप्त करने वाले हैं।

 महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी ।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥

 Mahāvarāho Govindaḥ Suṣeṇaḥ Kanakāṅgadī ।
Guhyo Gabhīro Gahano Guptaś Cakragadādharaḥ ॥

 जो महावराह रूप में पृथ्वी का उद्धार करने वाले हैं, गोविन्द हैं, सुंदर सेना वाले हैं, स्वर्ण के कंगन पहनते हैं।
जो रहस्यमय, गंभीर, अगम्य और गोपनीय हैं; जो चक्र और गदा धारण करने वाले हैं।

 वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः सङ्कर्षणोऽच्युतः ।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ॥
Vedhāḥ Svāṅgo’jitaḥ Kṛṣṇo Dṛḍhaḥ Saṅkarṣaṇo’cyutaḥ ।
Varuṇo Vāruṇo Vṛkṣaḥ Puṣkarākṣo Mahāmanāḥ ॥

 जो ब्रह्मा रूप में सृष्टिकर्ता हैं, अपने ही अंगों से सब कुछ प्रकट करते हैं, अजेय हैं, कृष्ण हैं, दृढ़ संकल्प वाले हैं।
जो संकर्षण (बलराम) हैं, अच्युत हैं, वरुण हैं, वरुण से संबद्ध हैं, वृक्ष स्वरूप हैं, कमल नेत्रों वाले और महान चित्त वाले हैं।

 भगवान् भगहाऽऽनन्दी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥
Bhagavān Bhagahā’nandī Vanamālī Halāyudhaḥ ।
Ādityaḥ Jyotirādityaḥ Sahiṣṇur Gatisattamaḥ ॥

 जो भगवान हैं, भग (शक्ति, ऐश्वर्य) का हरण करने वाले हैं, आनंदित रहने वाले हैं, वनमाला धारण करते हैं, हल आयुध (बलराम) हैं।
जो आदित्य हैं, तेजस्वी हैं, सूर्यस्वरूप हैं, सहनशील हैं और श्रेष्ठ गति (मोक्ष) प्रदान करने वाले हैं।

 सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिवस्पृक् सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥
Sudhanvā Khaṇḍaparaśur Dāruṇo Draviṇapradaḥ ।
Divaspṛk Sarvadṛg Vyāso Vācaspatirayonijaḥ ॥

 जो दिव्य धनुष वाले हैं, परशुराम रूप में कुल्हाड़ी धारण करते हैं, कठोर हैं, और धन प्रदाता हैं।
जो सूर्य के समान प्रकाशमान हैं, सर्वज्ञ हैं, वेदव्यास स्वरूप में ज्ञान का विस्तार करते हैं, वाणी के स्वामी हैं और बिना माता-पिता के उत्पन्न हुए हैं।

 त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥

 Trisāmā Sāmagaḥ Sāma Nirvāṇaṁ Bheṣajaṁ Bhiṣak ।
Sannyāsakṛc Chamaḥ Śānto Niṣṭhā Śāntiḥ Parāyaṇam ॥
जो तीनों सामगानों के ज्ञाता हैं, सामवेद के गायक हैं, स्वयं सामरूप हैं।
जो मोक्ष स्वरूप हैं, रोगनाशक औषध हैं, और वैद्य रूप में दुख दूर करते हैं।
संन्यासधर्म की स्थापना करने वाले, क्षमाशील, शांत, स्थिरता और परम शांति स्वरूप हैं।

 शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥
Śubhāṅgaḥ Śāntidaḥ Sraṣṭā Kumudaḥ Kuvaleśayaḥ ।
Gohito Gopatir Goptā Vṛṣabhākṣo Vṛṣapriyaḥ ॥
जो सुंदर अंगों वाले हैं, शांति प्रदान करते हैं, सृष्टि के रचयिता हैं।
कमल ह्रदय में वास करने वाले, गौओं और भक्तों के रक्षक, धर्मप्रिय हैं।

 अनिवर्ती निवृत्तात्मा सङ्क्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतांवरः ॥
Anivartī Nivṛttātmā Saṅkṣeptā Kṣemakṛc Chivaḥ ।
Śrīvatsavakṣāḥ Śrīvāsaḥ Śrīpatiḥ Śrīmatāṁ Varaḥ ॥

जो कभी पराजित नहीं होते, इंद्रियों से निवृत्त आत्मा हैं, संक्षेप में कार्य सिद्ध करने वाले हैं।
जिनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न है, जो लक्ष्मी के वासस्थल, पति और श्रेष्ठतम हैं।

 श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ॥
Śrīdaḥ Śrīśaḥ Śrīnivāsaḥ Śrīnidhiḥ Śrīvibhāvanaḥ ।
Śrīdharaḥ Śrīkaraḥ Śreyaḥ Śrīmānlokatrayāśrayaḥ ॥

 जो लक्ष्मी देने वाले हैं, लक्ष्मी के स्वामी, निवास, निधि, और उसकी विभा (प्रकाश) हैं।
लक्ष्मी को धारण करने वाले, शुभता देने वाले, श्रेष्ठतम हैं, और तीनों लोकों के आधार हैं।

 स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।
विजितात्माऽविधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ॥
Svakṣaḥ Svaṅgaḥ Śatānando Nandir Jyotir Gaṇeśvaraḥ ।
Vijitātmā'vidheyātmā Satkīrtiś Chinna Saṁśayaḥ ॥
जो सुंदर नेत्रों वाले, सुडौल अंगों वाले, सौ सुखों का देने वाले हैं।
जो आनंद स्वरूप हैं, प्रकाश के अधिपति, आत्म-विजयी, और अडिग स्वभाव वाले हैं।
जिनकी कीर्ति सच्ची है और जो सभी शंकाओं का नाश करते हैं।

 उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ॥
Udīrṇaḥ Sarvataś Cakṣur Anīśaḥ Śāśvatasthiraḥ ।
Bhūśayo Bhūṣaṇo Bhūtir Viśokaḥ Śokanāśanaḥ ॥

 जो सदैव ऊर्ध्वगामी हैं, सर्वदृष्टि से युक्त हैं, अद्वितीय स्वामी हैं।
जो पृथ्वी पर शयन करते हैं, स्वयं भूषण हैं, ऐश्वर्यस्वरूप हैं, दुःखहीन और दुःख नाशक हैं।

 अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥
Arciṣmān Arcitaḥ Kumbho Viśuddhātmā Viśodhanaḥ ।
Aniruddho'pratirathaḥ Pradyumno'mitavikramaḥ ॥

 जो तेजोमय हैं, पूज्य हैं, पूर्णता के प्रतीक (कलश) हैं, पवित्र आत्मा और पापों को शुद्ध करने वाले हैं।
अनिरुद्ध रूप में अविजेय हैं, अप्रतिरथ (जिनका कोई मुकाबला नहीं), प्रद्युम्न स्वरूप और असीम पराक्रमी हैं।

 कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥

Kālaneminihā Vīraḥ Śauriḥ Śūra Janeśvaraḥ ।
Trilokātmā Trilokeśaḥ Keśavaḥ Keśihā Hariḥ ॥

 जो कालनेमि नामक दैत्य का वध करने वाले हैं, वीर हैं, शूरवीरों के स्वामी हैं।
जो तीनों लोकों के आत्मा और स्वामी हैं, केशव हैं, केशी राक्षस का वध करने वाले, और हरि (हरने वाले) हैं।

 कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ॥
Kāmadevaḥ Kāmapālaḥ Kāmī Kāntaḥ Kṛtāgamaḥ ।
Anirdeśyavapur Viṣṇur Vīro'nanto Dhanañjayaḥ ॥

 जो प्रेम के देवता हैं, इच्छाओं के रक्षक हैं, स्वयं इच्छाओं के अधीन नहीं हैं।
सुंदर हैं, शास्त्रों के कर्ता हैं, उनका रूप वर्णनातीत है।
विष्णु, वीर, अनंत और विजय प्राप्त करने वाले (धनञ्जय) हैं।

 ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥
Brahmaṇyo Brahmakṛd Brahmā Brahma Brahmavivardhanaḥ ।
Brahmavid Brāhmaṇo Brahmī Brahmajño Brāhmaṇapriyaḥ ॥

 जो ब्रह्म (सत्य) के संरक्षक हैं, ब्रह्मा के रचयिता हैं, स्वयं ब्रह्मा और ब्रह्मस्वरूप हैं।
जो ब्रह्मज्ञान के ज्ञाता, ब्राह्मणस्वरूप, ब्रह्मविद्या के ज्ञाता और ब्राह्मणों को प्रिय हैं।

 महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥
Mahākramaḥ Mahākarmā Mahātejā Mahoragaḥ ।
Mahākratur Mahāyajvā Mahāyajño Mahāhaviḥ ॥

 जो महान कर्मों से आगे बढ़ने वाले हैं, महातेजस्वी और महान सर्प (अनंत रूप) हैं।
जो महान यज्ञों के करता, यज्ञस्वरूप और यज्ञ की श्रेष्ठ आहुति हैं।


स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥

Stavyaḥ Stavapriyaḥ Stotraṁ Stutiḥ Stotā Raṇapriyaḥ ।
Pūrṇaḥ Pūrayitā Puṇyaḥ Puṇyakīrtir Anāmayaḥ ॥

 जो स्तुति योग्य हैं, स्तुति को प्रिय हैं, स्वयं स्तोत्र, स्तुति और स्तुति करने वाले हैं।
जो पूर्णता के दाता, पुण्यस्वरूप, पुण्य कीर्ति वाले और रोग रहित हैं।

 मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ॥
Manojavas Tīrthakaro Vasuretā Vasupradaḥ ।
Vasuprado Vāsudevo Vasur Vasumanā Haviḥ ॥

 जो मन के समान तीव्र गति वाले हैं, तीर्थों के कारण हैं, श्रेष्ठ संतान (वसुरेता) के जनक हैं।
जो धन देने वाले, वासुदेव हैं, वसु (धन) स्वरूप हैं, शुभ मन वाले और आहुति स्वरूप हैं।

 सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ॥

Sadgatiḥ Satkṛtiḥ Sattā Sadbhūtiḥ Satparāyaṇaḥ ।
Śūraseno Yaduśreṣṭhaḥ Sannivāsaḥ Suyāmunaḥ ॥

 जो सद्गति देने वाले हैं, सद्कर्म के पूज्य, सच्चे अस्तित्व वाले हैं।
शूरसेन वंश में जन्मे, यदुकुल में श्रेष्ठ, शुभ निवास और यमुना के तट पर स्थित हैं।

 भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ॥

 Bhūtāvāso Vāsudevaḥ Sarvāsunilayo'nalaḥ ।
Darpahā Darpado Dṛpto Durdharo'thāparājitaḥ ॥

 जो सभी प्राणियों के वास स्थान हैं, वासुदेव हैं, समस्त प्राणों के आधार और अग्निरूप हैं।
जो अहंकार को हराने वाले, गर्व का कारण और गर्व से युक्त, फिर भी अजेय और अविजेय हैं।

 विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ॥
Viśvamūrtir Mahāmūrtir Dīptamūrtir Amūrtimān ।
Anekamūrtir Avyaktaḥ Śatamūrtir Śatānanaḥ ॥

 जो संपूर्ण सृष्टि के रूप हैं, महान और दीप्तिमान स्वरूप हैं, अमूर्त होते हुए भी सब में व्याप्त हैं।
जिनके अनेक रूप हैं, जो अव्यक्त, सैकड़ों रूप और मुख वाले हैं।


एको नैकः सवः कः किं यत् तत्पदमनुत्तमम् ।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥
Eko Naikaḥ Savaḥ Kaḥ Kiṁ Yat Tatpadam Anuttamam ।
Lokabandhur Lokanātho Mādhavo Bhaktavatsalaḥ ॥
जो एक होते हुए अनेक हैं, सर्वस्वरूप हैं, ‘क’ और ‘किं’ रूप में जानने योग्य हैं, वह परम पद हैं।
जो लोकों के मित्र, लोकों के स्वामी, लक्ष्मीपति और भक्तों पर अत्यंत स्नेह रखने वाले हैं।



सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥
Suvarṇavarṇo Hemāṅgo Varāṅgaś Candanāṅgadī ।
Vīrahā Viṣamaḥ Śūnyo Ghṛtāśīr Acalaś Calaḥ ॥

भावार्थ:
जिनका वर्ण सोने सा है, जिनके अंग स्वर्णमय हैं, सुंदर अंगों वाले और चंदनयुक्त गहनों से सुसज्जित हैं।
जो वीरों का नाश करने वाले, अप्रत्याशित, शून्यभावयुक्त, घृत जैसे मधुर वचन बोलने वाले, स्थिर और फिर भी गति वाले हैं।


 अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ॥
Amānī Mānado Mānyo Lokasvāmī Trilokadhṛk ।
Sumedhā Medhajo Dhanyaḥ Satyamedhā Dharādharaḥ ॥

भावार्थ:
जो अभिमान रहित होते हुए भी आदर देने वाले हैं, पूज्य हैं, लोकों के स्वामी और त्रिलोक को धारक हैं।
जो उत्तम बुद्धि वाले, यज्ञ से प्रकट, धन्य, सत्यबुद्धि वाले और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं।

तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः ॥
Tejovṛṣo Dyutidharaḥ Sarvaśastrabhṛtāṁ Varaḥ ।
Pragraho Nigraho Vyagro Naikaśṛṅgo Gadāgrajaḥ ॥

भावार्थ:
जो तेजस्वी वृषभ (बैल) रूप हैं, दिव्य प्रकाश धारण करने वाले, सब अस्त्रों के अभीमानी सर्वोत्तम।
वे ग्रहों को नियंत्रित करने वाले, ग्रहों के रक्षक, वाघ जैसे वीर, एक सींग वाले (एकदंत/एकशृंग), और गदा (मौली) के धारी हैं।

चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥
Caturmūrtiś Caturbāhuś Caturvyūhaś Caturgatiḥ ।
Caturātmā Caturbhāvaś Caturvedavidekapāt ॥

भावार्थ:
जो चार रूप, चार भुजाएँ, चार तरह के संचरण और गतियाँ रखने वाले हैं।
जो चार आचरणों वाले, चार भावों से युक्त और चार वेदों के ज्ञाता हैं।

समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥
Samāvarto'nivṛttātmā Durjayo Duratikramaḥ ।
Durlabho Durgamo Durgo Durāvāso Durārihā ॥

भावार्थ:
जो वापस नहीं लौटने वाले, निष्ठा वाले आत्मा हैं, अजेय, कठिन विभाग वाले, दुर्लभ, कठिन, दुर्गम, दुर्गों जैसे और दुर्गों के निवास, दुर्गों के शत्रुओं को नष्ट करने वाले।

शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥
Śubhāṅgo Lokasāraṅgaḥ Sutantustantuvardhanaḥ ।
Indrakarmā Mahākarmā Kṛtakarmā Kṛtāgamaḥ ॥

भावार्थ:
जो शुभ अंगधारी, लोकों के सार (मूल) हैं, जीवनों को पोषण देने वाले।
जो इंद्रों के कर्म, महान कार्य, सिद्ध कर्म और यज्ञों के अनुगामी हैं।

 उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः शृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ॥
Udbhavaḥ Sundaraḥ Sundo Ratnanābhaḥ Sulocanaḥ ।
Arko Vājasanaḥ Śṛṅgī Jayantaḥ Sarvavijjayī ॥

भावार्थ:
जो सुंदर, मर्यादित सुंदर और रत्नों के नाभि से निकला रूप हैं, दिव्य नेत्रों वाले।
जो सूर्य के समान तेजस्वी, वाज्र से सुंदर, सींग वाले, विजयस्वरूप और हर संघर्षों में विजयी हैं।

सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥
Suvarṇabindur kṣobhyaḥ Sarvavāgīśvareśvaraḥ ।
Mahāhrado Mahāgarto Mahābhūto Mahānidhiḥ ॥

भावार्थ:
जिनकी आँखें सुवर्ण बिंदुयुक्त हैं, जो वाणी और इश्वर का स्रोत (वाणीपति) हैं।
वे महान हृदय, महान गर्त (गहराई), महाभूत और महान निधि हैं।


कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।
अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥
Kumudaḥ Kundaraḥ Kundaḥ Parjanyaḥ Pāvano'anilaḥ ।
Amṛtāśo'amṛtavapuḥ Sarvajñaḥ Sarvato'mukhaḥ ॥

भावार्थ:
जो कमल और कुंद जैसे सुंदर हैं, वर्षा (पर्जन्य) स्वरूप, वायु को शुद्ध करने वाले।
जो अमृत की गंध वाले, अमृतमयी देह वाले, सर्वज्ञ और चारों ओर मुख वाले (सर्वदिशा में प्रकट करने वाले) हैं।

सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधोऽदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥                               
            Sulabhaḥ Suvrataḥ Siddhaḥ Śatrujich-Chatrutāpanaḥ ।
Nyagrodho'dumbaro'śvatthaś Chāṇūrān Dhra-niṣūdanaḥ ॥

भावार्थ:
जो सुलभ, धर्मप्रिय, सिद्ध, शत्रु को जीतने वाले, संकट देने वाले हैं।
वे न्याग्रोध, दुम्भर, अश्वत्थ जैसे विशाल, चाणूरान्ध्रनिष्ठा देने वाले हैं।

सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥
Sahasrārcih Saptajihvaḥ Saptaidhāḥ Saptavāhanaḥ ।
Amūrtiranagho'cintyo Bhayakṛd Bhayanāśanaḥ ॥

भावार्थ:
जो सहस्र तेजस्वी, सप्त जिह्वा, सप्त ही प्रकार के दिव्य स्वरूप और सप्त वाहन वाले हैं।
जो अमूर्त, निर्मल, अचिन्त्य, भय रचने वाले और भय को नष्ट करने वाले हैं।


 अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥
Aṇurbṛhatkṛśaḥ Sthūlo Guṇabhṛnnirguno Mahān ।
Adhṛtaḥ Svadhṛtaḥ Svāsyaḥ Prāgvaṁśo Vaṁśavardhanaḥ ॥

भावार्थ:
जो अणु रूप से बृहत, कृश से स्थूल, गुणों से युक्त और निर्गुण को महान रूप देने वाले हैं।
जो आधार (धारणकर्ता), स्वयं धारण करने वाले, स्वशक्ति वाले, आदिम वंश वाले और वंश की वृद्धि करने वाले हैं।


भारभृत् कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥
Bhārabhṛt Kathito Yogī Yogīśaḥ Sarvakāmadaḥ ।
Āśramaḥ Śramaṇaḥ Kṣāmaḥ Suparṇo Vāyuvāhanaḥ ॥

भावार्थ:
जो जगत का भार उठाने वाले हैं, जिनका वर्णन शास्त्रों में हुआ है, जो योगी हैं, योगियों के स्वामी हैं, और सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं।
जो तपस्वियों के आश्रय हैं, जो स्वयं श्रम में तत्पर रहते हैं, कृश शरीर वाले हैं, गरुड़ रूपी वाहन वाले हैं और वायु के समान गतिशील हैं।


धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियन्ताऽनियमोऽयमः ॥ 

                              Dhanurdharo Dhanurvedo Daṇḍo Damayitā Damaḥ ।
Aparājitaḥ Sarvasaho Niyantā’niyamo’yamaḥ ॥

भावार्थ:
जो धनुष धारण करने वाले हैं, धनुर्वेद के ज्ञाता हैं, जो दण्ड रूप हैं, शांति एवं अनुशासन कराने वाले हैं और स्वयं संयम हैं।
जो अपराजेय हैं, सब कुछ सहन करने वाले हैं, सबको नियंत्रित करने वाले हैं, जिनका कोई नियम नहीं बांध सकता और जो यमराज के भी नियंता हैं।


 

सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत् प्रीतिवर्धनः ॥
Sattvavān Sāttvikaḥ Satyaḥ Satyadharma-parāyaṇaḥ ।
Abhiprāyaḥ Priyarho’rhaḥ Priyakṛt Prītivardhanaḥ ॥

भावार्थ:
जो सत्त्वगुण से युक्त हैं, सात्त्विक स्वभाव वाले हैं, सत्य स्वरूप हैं, सत्य धर्म का पालन करने वाले हैं।
जो भावनाओं को जानते हैं, प्रियजनों के योग्य हैं, श्रेष्ठ हैं, प्रिय करने वाले हैं और प्रेम को बढ़ाने वाले हैं।


विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ॥
Vihāyasagatir Jyotiḥ Surucir Hutabhug Vibhuḥ ।
Ravir Virocanaḥ Sūryaḥ Savitā Ravilocanaḥ ॥

भावार्थ:
जो आकाश में गति करने वाले हैं (गरुड़ पर आरूढ़), प्रकाशस्वरूप हैं, सुंदर आभा वाले हैं, हवन की आहुति को ग्रहण करते हैं और सर्वशक्तिमान हैं।
जो सूर्य हैं, प्रकाशित करने वाले हैं, जो सूर्यरूपी सविता हैं और जिनकी दृष्टि सूर्य के समान है।


अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥
Ananto Hutabhug Bhoktā Sukhado Naikajo’grajaḥ ।
Anirviṇṇaḥ Sadāmarṣī Lokādhiṣṭhānam Adbhutaḥ ॥

भावार्थ:
जो अनंत हैं, अग्नि के द्वारा यज्ञ ग्रहण करते हैं, भोग करने वाले हैं, सुख देने वाले हैं, अनेक जन्म लेने वाले हैं, सबसे पहले उत्पन्न हुए हैं।
जो कभी थकते नहीं हैं, सदा सहनशील हैं, संपूर्ण लोकों के अधिष्ठान हैं और अत्यंत अद्भुत हैं।


सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ॥
Sanāt Sanātanatamaḥ Kapilaḥ Kapir Avyayaḥ ।
Svastidaḥ Svastikṛt Svasti Svastibhuk Svastidakṣiṇaḥ ॥

भावार्थ:
जो सनातन हैं, सनातनतम हैं (सभी का मूल), कपिल मुनि हैं, जो सर्वश्रेष्ठ गति (कपि) हैं, अविनाशी हैं।
जो कल्याण प्रदान करने वाले हैं, कल्याण के रचयिता हैं, स्वयं कल्याण हैं, कल्याण का सेवन करते हैं, और दक्षिणा स्वरूप हैं।

अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ॥
Araudraḥ Kuṇḍalī Cakrī Vikramy ūrjitaśāsanaḥ ।
Śabdātigaḥ Śabdasahaḥ Śiśiraḥ Śarvarīkaraḥ ॥

भावार्थ:
जो क्रोधरहित हैं, कुण्डलधारी हैं, चक्रधारी हैं, महान पराक्रमी हैं, और श्रेष्ठ शासन करने वाले हैं।
जो शब्दातीत हैं, शब्द को सहन करते हैं, शीतल हैं और अंधकार (रात्रि) को दूर करने वाले हैं।

अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणांवरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥
Akrūraḥ Peśalo Dakṣo Dakṣiṇaḥ Kṣamiṇāṁ Varaḥ ।
Vidvattamo Vītabhayaḥ Puṇyaśravaṇa-kīrtanaḥ ॥

भावार्थ:
जो क्रूरता से रहित हैं, कोमल स्वभाव वाले हैं, कुशल हैं, दक्ष दक्षिणा देने वाले हैं, क्षमाशीलों में श्रेष्ठ हैं।
जो विद्वानों में श्रेष्ठ हैं, भय से रहित करते हैं और जिनके नाम का श्रवण व कीर्तन पुण्यदायक है।

उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ॥
Uttāraṇo Duṣkṛtihā Puṇyo Duḥsvapna-nāśanaḥ ।
Vīrahā Rakṣaṇaḥ Santo Jīvanaḥ Paryavasthitaḥ ॥

भावार्थ:
जो भवसागर से तारने वाले हैं, पापों का नाश करने वाले हैं, पुण्यस्वरूप हैं, बुरे स्वप्नों का नाश करते हैं।
जो दुष्टों का वध करते हैं, रक्षक हैं, सज्जनों के जीवनदाता हैं और सदा स्थित रहते हैं।


अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।
चतुरश्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥

Anantarūpo’nantaśrīr Jitāmnyur Bhayāpahaḥ ।
Caturaśro Gabhīrātmā Vidiśo Vyādiśo Diśaḥ ॥

भावार्थ:
जिनके अनंत रूप हैं, जिनकी संपत्ति अनंत है, जिन्होंने क्रोध को जीत लिया है और जो भय को दूर करते हैं।
जो चतुर्दिक स्थित हैं, गहन आत्मस्वरूप हैं, जो सभी दिशाओं में विद्यमान हैं।

अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः ।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥
Anādir Bhūr Bhuvo Lakṣmīḥ Suvīro Rucirāṅgadaḥ ।
Janano Janajanmādir Bhīmo Bhīmaparākramaḥ ॥

भावार्थ:
जो आदि रहित (अनादि) हैं, पृथ्वी और भुव: लोक के आधार हैं, लक्ष्मी स्वरूप हैं, महान् वीर हैं, सुंदर कंगन धारण किए हुए हैं।
जो समस्त प्राणियों के जन्मदाता हैं, जन्म के आदि कारण हैं, भयंकर हैं, और जिनकी पराक्रम अत्यंत भयानक है।

आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥
Ādhāra-nilayo’dhātā Puṣpahāsaḥ Prajāgaraḥ ।
Ūrdhvagaḥ Satpathācāraḥ Prāṇadaḥ Praṇavaḥ Paṇaḥ ॥

भावार्थ:
जो समस्त जगत का आधार और निवास स्थान हैं, जिनका मुख पुष्प की तरह खिला रहता है, जो सदा जागरूक रहते हैं।
जो ऊर्ध्वगामी (ऊँचाई की ओर ले जाने वाले) हैं, सदाचरण में स्थित हैं, प्राणदायक हैं, प्रणव (ॐ) स्वरूप हैं, और सभी कार्यों का मूल्य हैं।


प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥
Pramāṇaṁ Prāṇanilayaḥ Prāṇabhṛt Prāṇajīvanaḥ ।
Tattvaṁ Tattvavid Ekātmā Janma-mṛtyu-jarātigaḥ ॥

भावार्थ:
जो प्रमाणस्वरूप हैं, प्राणों का आधार हैं, प्राणों का पोषण करने वाले हैं, प्राणों के जीवन हैं।
जो परम तत्त्व हैं, तत्त्व के ज्ञाता हैं, एकात्म स्वरूप हैं और जन्म-मरण-बुढ़ापे से परे हैं।


भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥
Bhūrbhuvaḥsvaḥstarus Tāraḥ Savitā Prapitāmahaḥ ।
Yajño Yajñapatir Yajvā Yajñāṅgo Yajñavāhanaḥ ॥

भावार्थ:
जो भू:, भुव:, स्व: लोकों के स्वरूप हैं, तारक हैं, सूर्य के रूप में सृजनकर्ता हैं, ब्रह्माजी के भी पूर्वज हैं।
जो यज्ञस्वरूप हैं, यज्ञ के स्वामी हैं, यज्ञकर्ता हैं, यज्ञ के अंग हैं, और यज्ञ को धारण करने वाले हैं।



यज्ञभृद् यज्ञकृद् यज्ञी यज्ञभुग् यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥
Yajñabhṛd Yajñakṛd Yajñī Yajñabhug Yajñasādhanaḥ ।
Yajñāntakṛd Yajñaguhyam Annam Annāda Eva Ca ॥

भावार्थ:
जो यज्ञ को धारण करते हैं, यज्ञ का सृजन करते हैं, स्वयं यज्ञस्वरूप हैं, यज्ञ का भोग करते हैं, यज्ञ को सिद्ध करने वाले हैं।
जो यज्ञ का अंत करने वाले हैं, यज्ञ का रहस्य हैं, अन्न स्वरूप हैं और अन्न को भोगने वाले भी वही हैं।


आत्मयोनिः स्वयञ्जातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥
Ātmayoniḥ Svayaṁjāto Vaikhānaḥ Sāmagāyanaḥ ।
Devakīnandanaḥ Sraṣṭā Kṣitīśaḥ Pāpanāśanaḥ ॥

भावार्थ:
जो स्वयं अपनी उत्पत्ति के कारण हैं, स्वयं उत्पन्न हुए हैं, वैखानस रूप में प्रकट हुए हैं, सामवेद का गायन करते हैं।
जो देवकी के पुत्र (कृष्ण) हैं, सृष्टिकर्ता हैं, पृथ्वी के स्वामी हैं और पापों का नाश करने वाले हैं।


शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ॥

Śaṅkhabhṛn Nandakī Cakrī Śārṅgadhanvā Gadādharaḥ ।
Rathāṅgapāṇir Akṣobhyaḥ Sarvapraharaṇāyudhaḥ ॥

भावार्थ:
जो शंख धारण करते हैं, नंदक नामक तलवार रखते हैं, चक्रधारी हैं, शार्ङ्ग धनुष रखते हैं, गदा धारण करते हैं।
जो रथ का पहिया हाथ में लेते हैं, जिन्हें विचलित नहीं किया जा सकता, और जो सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हैं।


सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति ।
वनमाली गदी शार्ङ्गी शङ्खी चक्री च नन्दकी ।
श्रीमान् नारायणो विष्णुर्वासुदेवोऽभिरक्षतु ॥
Sarvapraharaṇāyudha Om Nama iti ।
Vanamālī Gadī Śārṅgī Śaṅkhī Cakrī Ca Nandakī ।
Śrīmān Nārāyaṇo Viṣṇur Vāsudevo’bhirakṣatu ॥

भावार्थ:
सभी अस्त्र-शस्त्रों से युक्त भगवान को प्रणाम है।
जो वनमाला पहनते हैं, गदा, धनुष, शंख, चक्र और नंदक तलवार धारण करते हैं, वे श्रीमान् नारायण, विष्णु और वासुदेव हमारी रक्षा करें।

  श्रीवासुदेवोऽभिरक्षतु ॐ नम इति ।



उत्तरन्यास (Uttara Nyāsa)

भीष्म उवाच – प्रारंभिक फलश्रुति


भीष्म उवाच

इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः ।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥ 1॥
Bhīṣma Uvācha —
Iti idaṁ kīrtanīyasya Keśavasya Mahātmanaḥ ।
Nāmnāṁ sahasraṁ divyānām aśeṣeṇa prakīrtitam ॥1॥

भावार्थ:
भीष्म बोले —
यह भगवान केशव (विष्णु) के महात्म्य का संपूर्ण दिव्य सहस्रनाम (हज़ार नामों का) स्तोत्र पूर्ण रूप से बताया गया।


य इदं श‍ृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् ।
नाशुभं प्राप्नुयात्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥ 2॥
Ya idaṁ śṛṇuyān nityaṁ yaś cāpi parikīrtayet ।
Nāśubhaṁ prāpnuyāt kiñcit so’mūtreha ca mānavaḥ ॥2॥

भावार्थ:
जो मनुष्य इस सहस्रनाम को प्रतिदिन श्रवण करता है अथवा उसका पाठ करता है,
उसे इस लोक या परलोक में कोई अशुभ फल नहीं प्राप्त होता।


वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत् ।
वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात् ॥ 3॥
Vedāntago brāhmaṇaḥ syāt kṣatriyo vijayī bhavet ।
Vaiśyo dhanasamṛddhaḥ syāt śūdraḥ sukham avāpnuyāt ॥3॥

भावार्थ:
ब्राह्मण वेदान्त ज्ञानी हो, क्षत्रिय विजयी हो, वैश्य धनसम्पन्न हो और शूद्र सुखी हो —
ऐसे फल इस स्तोत्र के पाठ से प्राप्त होते हैं।

धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात् ।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी प्राप्नुयात्प्रजाम् ॥ 4॥
Dharmārthī prāpnuyād dharmam arthārthī cārtham āpnuyāt ।
Kāmān avāpnuyāt kāmī prajāarthī prāpnuyāt prajām ॥4॥

भावार्थ:
जो धर्म की इच्छा रखे वह धर्म को,
जो धन चाहता है वह उसे,
जो कामनाओं की पूर्ति चाहता है वह उन्हें और
जो संतान चाहता है, वह संतान प्राप्त करता है।


भक्तिमान् यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः ।
सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ॥ 5॥
Bhaktimān yaḥ sadotthāya śucis tadgata-mānasaḥ ।
Sahasraṁ Vāsudevasya nāmnām etat prakīrtayet ॥5॥

भावार्थ:
जो व्यक्ति भक्ति के साथ प्रतिदिन प्रात: उठकर शुद्ध चित्त से वासुदेव के इन हजार नामों का जप करता है...


यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च ।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥ 6॥
Yaśaḥ prāpnoti vipulaṁ jñāti-prādhānyam eva ca ।
Acalāṁ śriyam āpnoti śreyaḥ prāpnoty anuttamam ॥6॥

भावार्थ:
...वह व्यक्ति विशाल यश, अपने कुल में प्रमुख स्थान, अचल लक्ष्मी और सर्वोत्तम कल्याण को प्राप्त करता है।


न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति ।
भवत्यरोगो द्युतिमान् बलरूपगुणान्वितः ॥ 7॥
Na bhayaṁ kvacid āpnoti vīryaṁ tejaś ca vindati ।
Bhavaty arogī dyutimān bala-rūpa-guṇānvitaḥ ॥7॥

भावार्थ:
जो इस स्तोत्र का पाठ करता है उसे कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता।
वह तेजस्वी, स्वस्थ, बलवान, सुंदर और सद्गुणों से युक्त हो जाता है।

रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ 8॥
Rogārto mucyate rogād baddho mucyeta bandhanāt ।
Bhayan mucyeta bhītaś tu mucyetāpanna āpadaḥ ॥8॥

भावार्थ:
जो व्यक्ति रोग से पीड़ित है वह रोग से मुक्त हो जाता है,
जो बंधन में है वह बंधन से छूटता है,
भयभीत व्यक्ति भय से और संकट में पड़ा हुआ व्यक्ति संकट से मुक्त हो जाता है।


दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ॥ 9॥
Durgāṇy atitaraty āśu puruṣaḥ Puruṣottamam ।
Stuvan nāmasahasreṇa nityaṁ bhakti-samanvitaḥ ॥9॥

भावार्थ:
जो व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति से प्रतिदिन विष्णु सहस्रनाम का जप करता है,
वह सभी कठिनाइयों को शीघ्र पार कर लेता है।


वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः ।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥ 10॥   

                      Vāsudevāśrayo martyo Vāsudeva-parāyaṇaḥ ।
Sarvapāpa-viśuddhātmā yāti Brahma sanātanam ॥10॥

भावार्थ:
जो व्यक्ति वासुदेव का शरणागत और परायण है,
वह समस्त पापों से शुद्ध होकर सनातन ब्रह्म को प्राप्त करता है।

 न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ॥ 11॥

 Na Vāsudeva-bhaktānām aśubhaṁ vidyate kvacit ।
Janma-mṛtyu-jarā-vyādhi-bhayaṁ naiva upajāyate ॥11॥

भावार्थ:
वासुदेव के भक्तों को कभी कोई अशुभ नहीं होता।
उन्हें जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगों का भय भी नहीं सताता।

 इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।
युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ॥ 12॥

 Imaṁ stavam adhīyānaḥ śraddhā-bhakti-samanvitaḥ ।
Yujyeta-ātmasukha-kṣānti-śrī-dhṛti-smṛti-kīrtibhiḥ ॥12॥

भावार्थ:
जो श्रद्धा और भक्ति से इस स्तोत्र का पाठ करता है,
वह आत्मिक सुख, क्षमा, लक्ष्मी, धैर्य, स्मृति और कीर्ति प्राप्त करता है।

 न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः ।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥ 13॥


Na krodho na ca mātsaryaṁ na lobho nāśubhā matiḥ ।
Bhavanti kṛtapuṇyānāṁ bhaktānāṁ Puruṣottame ॥13॥

भावार्थ:
जो पुण्यात्मा हैं और भगवान विष्णु के भक्त हैं —
उन्हें न क्रोध होता है, न ईर्ष्या, न लोभ और न ही दुर्भावनाएँ उत्पन्न होती हैं।


द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः ।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥ 14॥
Dyaūḥ sa-candra-arka-nakṣatrā khaṁ diśo bhūr mahodadhiḥ ।
Vāsudevasya vīryeṇa vidhṛtāni mahātmanaḥ ॥14॥

भावार्थ:
चंद्र, सूर्य, नक्षत्र सहित आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी और महासागर —
ये सभी वासुदेव के सामर्थ्य से स्थिर हैं।

 ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् ।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ॥ 15॥


Sa-surāsura-gandharvaṁ sa-yakṣoraga-rākṣasam ।
Jagad-vaśe vartate idaṁ Kṛṣṇasya sacarācaram ॥15॥

भावार्थ:
देवता, असुर, गंधर्व, यक्ष, नाग और राक्षस —
सभी चर-अचर जगत श्रीकृष्ण के वश में है।

 इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः ।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ॥ 16॥


Indriyāṇi mano buddhiḥ sattvaṁ tejo balaṁ dhṛtiḥ ।
Vāsudevātmakaṁ āhuḥ kṣetraṁ kṣetrajña eva ca ॥16॥

भावार्थ:
इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, सत्त्वगुण, तेज, बल और धैर्य —
ये सब वासुदेव के ही अंश हैं; वही क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) भी हैं।


सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्प्यते ।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ॥ 17॥

 Sarvāgamānām ācāraḥ prathamaṁ parikalpyate ।
Ācāra-prabhavo dharmo dharmasya prabhur Acyutaḥ ॥17॥

भावार्थ:
सभी शास्त्रों में आचरण को प्रथम बताया गया है।
आचरण से धर्म उत्पन्न होता है और उस धर्म का स्वामी अच्युत (विष्णु) है।

 ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ॥ 18॥
Ṛṣayaḥ pitaro devā mahābhūtāni dhātavaḥ ।
Jaṅgamā-jaṅgamaṁ cedaṁ jagan-nārāyaṇodbhavam ॥18॥

भावार्थ:
ऋषि, पितर, देवता, पंचमहाभूत, धातुएँ,
चर और अचर सभी इस सम्पूर्ण सृष्टि का उद्भव नारायण से हुआ है।

 योगो ज्ञानं तथा साङ्ख्यं विद्याः शिल्पादिकर्म च ।
वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ॥ 19॥

 Yogo jñānaṁ tathā sāṅkhyaṁ vidyāḥ śilpādi-karma ca ।
Vedāḥ śāstrāṇi vijñānaṁ etat sarvaṁ Janārdanāt ॥19॥

भावार्थ:
योग, ज्ञान, सांख्य, विद्याएँ, शिल्प और सभी प्रकार के कार्य,
वेद, शास्त्र और विज्ञान — ये सब भगवान जनार्दन से उत्पन्न हैं।

 एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः ।
त्रींल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥ 20॥

 Eko Viṣṇur mahadbhūtaṁ pṛthagbhūtāny anekaśaḥ ।
Trīn lokān vyāpya bhūtātmā bhuṅkte viśvabhug avyayaḥ ॥20॥

भावार्थ:
एक ही विष्णु महान आत्मा होकर अनेक रूपों में प्रकट हुए हैं।
वे तीनों लोकों में व्याप्त हैं, समस्त प्राणियों के स्वामी हैं और नित्य हैं।

 इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् ।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ॥ 21॥
Imaṁ stavaṁ Bhagavato Viṣṇor Vyāsena kīrtitam ।
Paṭhed ya icchet puruṣaḥ śreyaḥ prāptuṁ sukhāni ca ॥21॥

भावार्थ:
जो पुरुष श्रेष्ठ फल और सुख की प्राप्ति चाहता है,
वह भगवान विष्णु के इस स्तोत्र का पाठ करे, जिसे व्यासजी ने वर्णित किया है।

 विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभुमव्ययम् ।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ॥ 22॥


Viśveśvaram ajaṁ devaṁ jagataḥ prabhum avyayam ।
Bhajanti ye puṣkarākṣaṁ na te yānti parābhavam ॥22॥

भावार्थ:
जो लोग कमल नेत्रों वाले अजन्मा भगवान विष्णु का भजन करते हैं,
वे संसार में कभी पराजित नहीं होते।

 अर्जुन उवाच
पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम ।
भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन ॥ 23॥


Arjuna Uvācha —
Padma-patra-viśālākṣa Padmanābha surottama ।
Bhaktānām anuraktānāṁ trātā bhava Janārdana ॥23॥

भावार्थ:
अर्जुन बोले:
हे पद्मपत्र के समान विशाल नेत्रों वाले,
हे पद्मनाभ, हे श्रेष्ठ देव!
अपने प्रेमी भक्तों के रक्षक बनिए, हे जनार्दन!

 श्रीभगवानुवाच —
यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव ।
सोऽहमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः ॥ 24॥


Śrībhagavān uvācha —
Yo māṁ nāmasahasreṇa stotum icchati Pāṇḍava ।
So’ham ekena ślokena stuta eva na saṁśayaḥ ॥24॥

भावार्थ:
श्रीभगवान बोले —
हे पाण्डव! जो मुझे सहस्र नामों से स्तुति करना चाहता है,
वह केवल एक श्लोक से भी मेरी स्तुति कर देता है — इसमें कोई संदेह नहीं।

 व्यास उवाच —
वासनाद्वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम् ।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ 25॥


Vyāsa Uvācha —
Vāsanād Vāsudevasya vāśitaṁ bhuvana-trayam ।
Sarvabhūtanivāso’si Vāsudeva namo’stu te ॥25॥

भावार्थ:
व्यास जी बोले —
वासुदेव की दिव्य महिमा से तीनों लोकों को सुवासित किया गया है।
हे समस्त प्राणियों के वास स्थान, वासुदेव! आपको बारम्बार नमस्कार।

 पार्वत्युवाच
केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम् ।
पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ 26॥


Pārvaty uvācha —
Kenopāyena laghunā Viṣṇor nāmasahasrakam ।
Paṭhyate paṇḍitair nityaṁ śrotum icchāmy ahaṁ prabho ॥26॥

भावार्थ:
पार्वती जी ने पूछा
हे प्रभो! किस सरल उपाय से पंडित लोग प्रतिदिन विष्णु सहस्रनाम का पाठ करते हैं?
मैं वह जानना चाहती हूँ।

 ईश्वर उवाच
श्रीरामरामरामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनामतत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ 27॥


Īśvara Uvācha —
Śrī-Rāma-Rāma-Rāmeti rame rāme manorame ।
Sahasranāma-tat tulyam rāma-nāma varānane ॥27॥

भावार्थ:
ईश्वर (शिव) बोले —
हे सुन्दर मुख वाली पार्वती!
"श्रीराम राम राम" — इस नाम का जाप,
विष्णु के सहस्रनामों के बराबर फलदायक है।


ब्रह्मोवाच:
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये
सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते
सहस्रकोटियुगधारिणे नमः ॥
Brahmovācha —
Namo'stv-Anantāya Sahasramūrtaye
Sahasrapādākṣiśiro'rubāhave ।
Sahasranāmne Puruṣāya Śāśvate
Sahasrakoṭiyugadhāriṇe Namaḥ ॥

भावार्थ:
मैं अनंत स्वरूप, सहस्र रूपों, सहस्र चरणों, नेत्रों, शिरों और भुजाओं वाले भगवान को नमन करता हूँ।
जो सहस्र नामों से विभूषित, शाश्वत पुरुष और सहस्रों कोटि युगों को धारण करने वाले हैं।

 सहस्रकोटियुगधारिणे नम ॐ नम इति ।
ॐ तत्सदिति श्रीमहाभारते... श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रम्।
Sahasrakoṭiyugadhāriṇe Namaḥ Om Nama Iti ।
Om Tat Sat iti Śrīmahābhārate... Śrīvishṇor Divyasahasranāmastotram ॥

भावार्थ:
इन सहस्र नामों के स्तोत्र का यह समापन है, जो महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म और युधिष्ठिर के संवाद में वर्णित है।


सञ्जय उवाच:


यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥

 Saṁjaya uvācha:
Yatra Yogeshvaraḥ Kṛṣṇo Yatra Pārtho Dhanurdharaḥ ।
Tatra Śrīr Vijayō Bhūtirdhruvā Nītir Matir Mama ॥

भावार्थ:
जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन होते हैं, वहाँ निश्चित ही विजय, समृद्धि, और नीति का वास होता है। यह मेरा दृढ़ मत है।

श्रीभगवानुवाच:
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥


Śrībhagavān uvācha:
Ananyāś cintayanto māṁ Ye janāḥ paryupāsate ।
Teṣāṁ nityābhiyuktānāṁ Yogakṣemaṁ vahāmyaham ॥

भावार्थ:
जो भक्त मेरी अनन्य भक्ति करते हैं, मैं उनके योग (प्राप्ति) और क्षेम (सुरक्षा) का स्वयं वहन करता हूँ।

 परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥


Paritrāṇāya sādhūnāṁ Vināśāya ca duṣkṛtām ।
Dharmasaṁsthāpanārthāya Sambhavāmi Yuge Yuge ॥

भावार्थ:
सज्जनों की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए मैं हर युग में अवतार लेता हूँ।

संस्कृत:सुखी हो जाते हैं।


कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् ।
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयामि ॥
Kāyena Vācā Manasendriyaīrvā
Buddhyātmanā vā Prakṛteḥ Svabhāvāt ।
Karomi Yadyat Sakalaṁ Parasmai
Nārāyaṇāyeti Samarpayāmi ॥

भावार्थ:
जो भी कार्य मैं शरीर, वाणी, मन, इन्द्रियों, बुद्धि या आत्मा से, चाहे स्वभाववश करूँ — वह सब मैं श्रीनारायण को समर्पित करता हूँ।

समापन पंक्ति:

इति श्रीविष्णोः दिव्यसहस्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् । ॐ तत् सत् ॥

Hinglish:
Iti Śrī-Viṣṇor Divyasahasranāma Stotram Sampūrṇam । Om Tat Sat ॥

भावार्थ:
इस प्रकार श्रीविष्णु के दिव्य सहस्र नामों का स्तोत्र पूर्ण होता है।
"ॐ तत् सत्" — यही परम सत्य है।




ॐ आपदाम अपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥
Om Āpadām Apahartāraṁ Dātāraṁ Sarvasampadām
Lokābhirāmaṁ Śrīrāmaṁ Bhūyo Bhūyo Namāmyaham ॥

भावार्थ:
(१) मैं श्रीराम को नमन करता हूँ—जो विपत्तियों को हरने वाले, सम्पदा देने वाले, तीनों लोकों में प्रिय हैं; मैं उन्हें बार-बार नमन करता हूँ।


आर्तानामार्तिहन्तारं भीतानां भीतिनाशनम् ।
द्विषतां कालदण्डं तं रामचन्द्रं नमाम्यहम् ॥
Ārtānām Ārtihantāraṁ Bhītānāṁ Bhītināśanam ।
Dviṣatāṁ Kāladanḍaṁ Taṁ Rāmacandraṁ Namāmyaham ॥

भावार्थ:
(२) मैं श्रीराम को नमन करता हूँ—जो दुखी व्यक्तियों का कष्ट हराने वाले, भयभीत का भय नाशक, और द्वेषियों के लिए समय का दण्ड हैं।

 नमः कोदण्डहस्ताय सन्धीकृतशराय च ।
खण्डिताखिलदैत्याय रामायापन्निवारिणे ॥
Namaḥ Kodaṇḍahastāya Sāndhī Kṛtaśarāya Ca
Khaṇḍitākhiladaityāya Rāmāyāpannivāriṇe ॥

भावार्थ:
(३) मैं जिन हाथ में कोदण्ड धनुष और सन्धि स्थिरीकृत बाण पकड़े हुए हैं, और जिन्होंने सभी राक्षसों का संहार किया – ऐसे श्रीराम को नमन करता हूँ।


रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥
Rāmāya Rāmabhadrāya Rāmacandrāya Vedhase ।
Raghunāthāya Nāthāya Sītāyāḥ Pataye Namaḥ ॥

भावार्थ:
(४) मैं रामचंद्र को नमन करता हूँ—राम, रामभद्र, रघुनाथ, रघुवराय, सीता के पतिवर्य को।


अग्रतः पृष्ठतश्चैव पार्श्वतश्च महाबलौ ।
आकर्णपूर्णधन्वानौ रक्षेतां रामलक्ष्मणौ ॥
Agram Aḥ Pṛṣṭhataś Caiva Pārśvataś Ca Mahābalau ।
Ākarṇapūrṇadhanvānau Rakṣetāṁ Rāmalakṣmaṇau ॥

भावार्थ:
(५) मैं उन श्रीराम-लक्ष्मण को नमन करता हूँ — जो अपने अग्र, पीछे, और दोनों पार्श्वों में महानबल के साथ धनुष लेकर रथ पर चढ़े हुए हैं, और हम सब की रक्षा करें।


 

सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन् ममाग्रतो नित्यं रामः पातु सलक्ष्मणः ॥
Sannaddhaḥ Kavacī Khaḍgī Cāpabāṇadharo Yuvā ।
Gacchanmamāgrato Nityaṁ Rāmaḥ Pātu Salakṣmaṇaḥ ॥

भावार्थ:
(६) वह युवा वीर, कवच-खड्ग-चाप-बाण युक्त, जो मेरे सामने निरंतर चले – श्रीराम राहुल लक्ष्मण मेरी रक्षा करें।


अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात् ।
नश्यन्ति सकला रोगास्सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥

Acyutānantagovindanāmocchāraṇa-bheṣajāt ।
Naśyanti Sakalā Rogās Satyaṁ Satyaṁ Vadāmyaham ॥

भावार्थ:
(७) जिसका नाम उच्चारण रोगों का औषध – मैं सत्यपूर्वक कहता हूँ, सारे रोग नष्ट हो जाते हैं।

सत्यं सत्यं पुनस्सत्यमुद्धृत्य भुजमुच्यते ।
वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न दैवं केशवात्परम् ॥
Satyaṁ Satyaṁ Punas Satyaṁ Uddhṛtya Bhujamuchyate ।
Vedāc Chāstraṁ Paraṁ Nāsti Na Daivam Keśavāt Param ॥

भावार्थ:
(८) यह सत्य है, सच कहता हूँ — जो उच्च रखा जाता है वह 'भुज' कहलाता है। वेद और शास्त्रों से परे, केशव से बड़ा कोई देवता नहीं।


शरीरे जर्जरीभूते व्याधिग्रस्ते कलेवरे ।
औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः ॥
Śarīre Jarjarībhūte Vyādhigrāste Kalevare ।
Auṣadhaṁ Jāhnavītōyaṁ Vaidyo Nārāyaṇō Hariḥ ॥

भावार्थ:
(९) यदि शरीर जर्जर, रोगग्रस्त या लीलिकारक हो, तो निदान है — नारायण ही जो जहर-क्षरणवाली गंगा (जाह्नवी) के समान औषध हैं।


आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः ॥
Āloḍya Sarvaśāstrāṇi Vicārya Ca Punaḥ Punaḥ ।
Idamekaṁ Suniṣpannaṁ Dhyeyo Nārāyaṇō Hariḥ ॥

भावार्थ:
(१०) जब सभी शास्त्रों का अध्ययन कर, पुनः पुनः यह एक (नारायण) ध्यान के रूप में सिद्ध किया गया — वही नारायण सर्वोत्तम ध्यान हैं।

यदक्षरपदभ्रष्टं मात्राहीनं तु यद्भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव नारायण नमोऽस्तु ते ॥
Yad Akṣarapadabhraṣṭaṁ Mātrāhīnaṁ Tu Yad Bhavet ।
Tat Sarvaṁ Kṣamyatāṁ Deva Nārāyaṇa Namo'stu Te ॥

भावार्थ:
जो कुछ अक्षर या मात्राएँ गलत हो जाएँ, वह जो अक्षर ही खो जाए—ऐसे सारे दोष क्षमा किए जाएंगे। नमन हो आपको, हे नारायण!


विसर्गबिन्दुमात्राणि पदपादाक्षराणि च ।
न्यूनानि चातिरिक्तानि क्षमस्व पुरुषोत्तम ॥
Visargabindumātrāṇi Padapādākṣarāṇi Ca ।
Nyūnāni Chātiriktāni Kṣamasva Puruṣottama ॥

भावार्थ:
विसर्ग, बिंदु मात्राएँ, पद-पाद-अक्षर में हुई कमी या बहुतायत— सब क्षमा करें, हे पुरुषोत्तम!


नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।
नमस्ते केशवानन्त वासुदेव नमोऽस्तुते ॥
Namaḥ Kamalanābhāya Namaste Jalaśāyine ।
Namaste Keśavānanta Vāsudeva Namo'stute ॥

भावार्थ:
नमस्कार, हे कमलनाभ, जल में विश्राम करने वाले, हे केशव, हे अनंत वासुदेव—नमन है आपका।


नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥
Namo Brahmaṇyadevāya Gobrāhmaṇahitāya Ca ।
Jagaddhitāya Kṛṣṇāya Govindāya Namo Namaḥ ॥

भावार्थ:
नमन हो उन देवता को जो ब्राह्मणों और गायों के हित में हैं, जग के कल्याण के लिए, कृष्ण, गोविंद को बारम्बार नमन।


आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रति गच्छति ॥
Ākāśātpatitaṁ Tōyaṁ Yathā Gacchati Sāgaram ।
Sarvadevanamaskāraḥ Keśavaṁ Prati Gacchati ॥

भावार्थ:
जैसे आकाश से गिरे पानी की बूँदें अंततः समुद्र में समा जाती हैं, वैसे ही सभी देवताओं की प्रणाम-भंगिमा केशव के प्रति ही जाती है।


एष निष्कण्टकः पन्था यत्र सम्पूज्यते हरिः ।
कुपथं तं विजानीयाद् गोविन्दरहितागमम् ॥
Eṣa Niṣkaṇṭakaḥ Panthā Yatra Sampūjyate Hariḥ ।
Kupathaṁ Taṁ Vijñīyād Govindarahitāgamam ॥

भावार्थ:
जहाँ हरि की पूजा होती है, वह मार्ग कांटों से रहित होता है। गोविंद रहित मार्ग को कुपथ कहा जाता है—उस मार्ग को जानो।


सर्ववेदेषु यत्पुण्यं सर्वतीर्थेषु यत्फलम् ।
तत्फलं समवाप्नोति स्तुत्वा देवं जनार्दनम् ॥
Sarvavedēṣu Yat Puṇyaṁ Sarvatīrthēṣu Yat Phalam ।
Tat Phalaṁ Samavāpnoti Stutvā Dēvaṁ Janārdanam ॥

भावार्थ:
जो पुण्य सभी वेदों में है, जो फल सभी तीर्थों में मिलता है— वह फल तुल्य मिलता है, यदि आप जनार्दन (भगवान) की स्तुति करो।

यो नरः पठते नित्यं त्रिकालं केशवालये ।
द्विकालमेककालं वा क्रूरं सर्वं व्यपोहति ॥
Yo Naraḥ Paṭhatē Nityaṁ Trikālaṁ Keśavālayē ।
Dvikālamēkākālaṁ Vā Krūraṁ Sarvaṁ Vyapōhati ॥

भावार्थ:
जो नर रोज़ाना तीनों काल (अग्नि, वाक्, सोम) में केशवालय (श्रीविष्णु नाम) का पाठ करता है— दो या एक बार भी यदि करता है, तो सभी क्रूरता और कष्ट दूर हो जाते हैं।


दह्यन्ते रिपवस्तस्य सौम्याः सर्वे सदा ग्रहाः ।
विलीयन्ते च पापानि स्तवे ह्यस्मिन् प्रकीर्तिते ॥
Dahyantē Ripavas Tāsya Saumyāḥ Sarvē Sadā Grahāḥ ।
Viliyantē Ca Pāpāni Stavē Hyasmin Prakīrtitē ॥

भावार्थ:
उसके (केशव स्तुति करने वाले) रिपु (शत्रु) जल जाते हैं, सौम्य ग्रह सभी लगते हैं। सभी पाप विलीन हो जाते हैं, जब यह स्तुति की जाती है।


येन ध्यातः श्रुतो येन येनायं पठ्यते स्तवः ।
दत्तानि सर्वदानानि सुराः सर्वे समर्चिताः ॥
Yēna Dhyātaḥ Śrutō Yēna Yēnāyaṁ Paṭhyatē Stavaḥ ।
Dattanī Sarvadānāni Surāḥ Sarvē Samarčitāḥ ॥

भावार्थ:
जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है, जिसके द्वारा सुना गया— जिसके नाम पर यह स्तुति पढ़ी जाए— उसी को दान होते हैं, सभी सुरगण भी साथ में पूजते हैं।

इह लोके परे वापि न भयं विद्यते क्वचित् ।
नाम्नां सहस्रं योऽधीते द्वादश्यां मम सन्निधौ ॥
Iha Lōkē Parē Vāpi Na Bhayaṁ Vidyatē Kvacit ।
Nāmnāṁ Sahasraṁ Yō'dhītē Dvādaśyāṁ Mama Sannidhau ॥

भावार्थ:
इस लोक में या परलोक में कहीं भी भय नहीं होता, जो मेरे सन्निधि में बारहवें दिन तक नामों का सहस्र (1000 नाम) पढ़ता रहे।


शनैर्दहन्ति पापानि कल्पकोटिशतानि च ।
अश्वत्थसन्निधौ पार्थ ध्यात्वा मनसि केशवम् ॥
Śanairdahanti Pāpāni Kalpakōṭiśatāni Ca ।
Aśvatthasannidhau Pārtha Dhyātvā Manasi Kēśavam ॥

भावार्थ:
शांतिपूर्वक यह पाप (गुणाह) जल जाते हैं, चाहे वह कल्पकोटि जितने भी हों। हे पार्थ, यदि आप अश्वत्थ वृक्ष के समीप ध्यान से केशव का ध्यान करें।


पठेन्नामसहस्रं तु गवां कोटिफलं लभेत् ।
शिवालये पठेन्नित्यं तुलसीवनसंस्थितः ॥

Paṭhennāmasahasraṁ Tu Gavāṁ Kōṭiphalam Labhēt ।
Śivalayē Paṭhennityaṁ Tulasīvanasaṁsthitaḥ ॥

भावार्थ:
जो कोई गाय के एक करोड़ फल के बराबर नामसहस्र का पाठ करता है, जो तुलसी के वन में शिवालय के पास नियमित रूप से पढ़ता है।


नरो मुक्तिमवाप्नोति चक्रपाणेर्वचो यथा ।
ब्रह्महत्यादिकं घोरं सर्वपापं विनश्यति ॥
Naro Muktimavāpnoti Chakrapāṇēr Vaco Yathā ।
Brahmahatyādikaṁ Ghōraṁ Sarvapāpaṁ Vinaśyati ॥

भावार्थ:
जो मनुष्य यह नामसहस्र पढ़ता है, उसे मुक्तिप्राप्ति होती है। जैसे चक्रधारी का वचन अत्यंत प्रभावशाली है, वैसे ही यह नाम सारे पापों का नाश करता है, चाहे वे ब्रह्महत्या जैसे बड़े पाप हों।


विलयं यान्ति पापानि चान्यपापस्य का कथा ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥
Vilayaṁ Yānti Pāpāni Cānyapāpasya Kā Kathā ।
Sarvapāpavinirmukto Viṣṇulōkaṁ Sa Gacchati ॥

भावार्थ:
अन्य पापों के साथ-साथ सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, और वह व्यक्ति विष्णुलोक को प्राप्त होता है।


॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥

॥ Hariḥ Ōm Tat Sat ॥

भावार्थ:
हे हरि! सर्व सत्य की प्राप्ति हो।


महाभारते अनुशासनपर्वणि अध्यायः १४९


ॐ आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥
Ōṁ Āpadāmapahartāraṁ Dātāraṁ Sarvasampadām ।
Lōkābhirāmaṁ Śrīrāmaṁ Bhūyō Bhūyō Namāmyaham ॥

भावार्थ:
मैं बार-बार उस श्रीराम को नमन करता हूँ जो संकटों को दूर करने वाला, सब सम्पत्ति देने वाला और लोकों को प्रिय है।


आर्तानामार्तिहन्तारं भीतानां भीतिनाशनम् ।
द्विषतां कालदण्डं तं रामचन्द्रं नमाम्यहम् ॥
Ārtānāmārtihantāraṁ Bhītānāṁ Bhītināśanam ।
Dviṣatāṁ Kāladāṇḍaṁ Taṁ Rāmacandraṁ Namāmyaham ॥

भावार्थ:
जो कष्टों में पड़े हुए और भयभीतों का नाश करने वाला हो, दुष्टों का कालदण्ड हो, उसे मैं नमस्कार करता हूँ—रामचंद्र को।


नमः कोदण्डहस्ताय सन्धीकृतशराय च ।
खण्डिताखिलदैत्याय रामायापन्निवारिणे ॥
Namaḥ Kōdaṇḍahastāya Sandhīkṛtaśarāya Ca ।
Khaṇḍitākhiladaityāya Rāmāyāpannivāriṇē ॥

भावार्थ:
कोदण्ड धारी, जो संगठित बाण से शत्रुओं का संहार करता है, जो सम्पूर्ण दैत्यों को खण्डित करता है, राम को नमन।


रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥
Rāmāya Rāmabhadrāya Rāmacandrāya Vēdhasē ।
Raghunāthāya Nāthāya Sītāyāḥ Patayē Namaḥ ॥

भावार्थ:
राम, रामभद्र, रामचन्द्र, वेधसे, रघुनाथ, नाथ तथा सीता के पति को नमः।


अग्रतः पृष्ठतश्चैव पार्श्वतश्च महाबलौ ।
आकर्णपूर्णधन्वानौ रक्षेतां रामलक्ष्मणौ ॥
Agrataḥ Pṛṣṭhataścaiva Pārśvataśca Mahābalau ।
Ākarṇapūrṇadhanvānau Rakṣetāṁ Rāmalakṣmaṇau ॥

भावार्थ:
जो महाबल पूर्व और पश्चात, दोनों ओर और पार्श्व में धनुषधारी हैं, राम-लक्ष्मण उन्हें सदैव रक्षा करें।


सन्नद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन् ममाग्रतो नित्यं रामः पातु सलक्ष्मणः ॥


Sannaddhaḥ Kavacī Khaḍgī Cāpabāṇadharō Yuvā ।
Gacchan Mamāgrato Nityaṁ Rāmaḥ Pātu Salakṣmaṇaḥ ॥

भावार्थ:
सदा कवच, तलवार, धनुष और बाण से सुसज्जित युवा राम और लक्ष्मण मेरे आगे चलें और मेरी रक्षा करें।


अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात् ।
नश्यन्ति सकला रोगास्सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥


Acyutānantagōvindanāmōccāraṇabhēṣajātaḥ ।
Naśyanti Sakalā Rōgāssatyaṁ Satyaṁ Vadāmyaham ॥

भावार्थ:
अच्युत, अनंत, गोविंद के नामों के उच्चारण से सारे रोग नष्ट हो जाते हैं। यह सत्य है, मैं सत्य कहता हूँ।


सत्यं सत्यं पुनस्सत्यमुद्धृत्य भुजमुच्यते ।
वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न दैवं केशवात्परम् ॥
Satyaṁ Satyaṁ Punas Satyamuddhṛtya Bhujamucyate ।
Vēdācchāstraṁ Paraṁ Nāsti Na Daivaṁ Kēśavātparam ॥

भावार्थ:
सत्य सत्य है। सत्य को उठाकर हथियार के रूप में रखा जाता है। वेद और शास्त्रों से बड़ा कुछ नहीं, और न ही केशव से बड़ा कोई देव है।


शरीरे जर्जरीभूते व्याधिग्रस्ते कलेवरे ।
औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः ॥
Śarīrē Jarjarībhūtē Vyādhigrastē Kalēvarē ।
Auṣadhaṁ Jāhnavītōyaṁ Vaidyō Nārāyaṇō Hariḥ ॥

भावार्थ:
जो शरीर बूढ़ा, रोगग्रस्त या कलेवर बन चुका हो, उनके लिए नारायण, जो वैद्य हैं, जाह्नवी का जल औषधि है।


आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः ॥
Ālōḍya Sarvaśāstrāṇi Vicārya Ca Punaḥ Punaḥ ।
Idamēkaṁ Suniṣpannaṁ Dhyēyō Nārāyaṇō Hariḥ ॥

भावार्थ:
सभी शास्त्रों को पढ़कर, पुनः पुनः विचार कर, यह एक सुनीष्पन्न साधना है, जिसका ध्यान नारायण को किया जाना चाहिए।


यदक्षरपदभ्रष्टं मात्राहीनं तु यद्भवेत् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव नारायण नमोऽस्तु ते ॥
Yad Akṣarapadabhraṣṭaṁ Mātrāhīnaṁ Tu Yad Bhavet ।
Tat Sarvaṁ Kṣamyatāṁ Deva Nārāyaṇa Namo'stu Te ॥

भावार्थ:
(पुनः) यदि कोई अक्षर या मात्राओं में त्रुटि हो, तो हे देव, आप उसे क्षमा करें। नमन आपका।


विसर्गबिन्दुमात्राणि पदपादाक्षराणि च ।
न्यूनानि चातिरिक्तानि क्षमस्व पुरुषोत्तम ॥
Visargabindumātrāṇi Padapādākṣarāṇi Ca ।
Nyūnāni Chātiriktāni Kṣamasva Puruṣottama ॥

भावार्थ:
(पुनः) विसर्ग, बिंदु, अक्षर की कमी अथवा अधिशेष को क्षमा करें, हे पुरुषोत्तम!


॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
॥ Hariḥ Ōm Tat Sat ॥ 

भावार्थ:
सर्व सत्यों का अभिवादन।

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